________________
76. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24, पृ. 360, चोभयमपि प्राधान्येन विवक्षितम् ।
77. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत ( जोधपुर, 1997), पृ. 214-215
78. तत्त्वार्थाधिगमभाष्य वृत्ति, 5/24 पृ. 360, प्रयोगनिरपेक्षो विस्रसा बंधः ।
79. भगवतीवृत्ति, पत्र 328 – 'पओगपरिणय त्ति जीव व्यापारेण शरीरादितया परिणताः '।
80. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई) 8/2-49
81. वही, 8/2-39
82. वही, 2 / 129, भावओ वण्णमंते गंधमंते, रसमंते, फासमंते ।
83. वही, 8/2-39
84. तत्त्वार्थसूत्र, 8/3, वृत्ति, पृ. 128
85. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8/32-39
86. वही, 8/2
87. वही, 8/40
88. उत्तरज्झयणाणि, 36/83, 105 आदि ।
89. भगवई (खण्ड-2), 8/32-41 का भाष्य |
90. अंगसुत्ताणि 2 (भगवई), 8 / 345, गोयमा । दुविहे बंधे पण्णत्ते, तं जहा - पयोगबंधे य वीससाबंधे य।
91. वही, 8/346
92. वही, 8/347
93. वही, 8/348
94. वही, 8/350
95. वही, 8/351
96. भगवतीवृत्ति, पत्र 395 -
समद्धिनाए बन्धो न होइ समलुक्खयाए वि न होइ । वेमायनिद्धलुक्खत्तणेणं बंधी उधाणं ॥
97. प्रज्ञापना, 13/21-22
98. भगवतीवृत्ति, पृ. 395 -
निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं ।
निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवज्जो विसमो समो वा ॥ 99. अवस्थी, नरेन्द्र, शाश्वत, पृ. 218-220
तुलसी प्रज्ञा जनवरी-मार्च, 2003
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
19
www.jainelibrary.org