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भक्ति के क्षेत्र में गुरु का महत्त्व सदैव सिरमौर रहा है। जैन संत कवियों ने अपने गुरुआचार्यों के प्रति जिस भावविह्वल पदावली का प्रयोग किया है, वह इनकी नवीन और मौलिक उपलब्धि कही जानी चाहिए। जैन कवियों के मंगलाचरणों अथवा पुष्पिकाओं में गुरु वंदना सम्बन्धी अनेक भावप्रधान दृश्य उपस्थित हुए हैं । उपाध्याय कुशललाभ की रचना पूज्यकहण गीत की पंक्तियां प्रस्तुत हैं जिनमें कवि ने सादर अपने अन्तर्मन को उंडेल दिया है
इण अवसर श्री पूज्य महा मोटा जती रे ।
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श्रावक ना सुख हेत आया त्रंबावती रे ।
Malas' अम गुरु रीति प्रतीति बधई वाली रे।
दिक्षारमणी साथ रमई मननी रली रे ।।
प्रवचन वचन विस्तार अरथ तरवर घणा रे ।
कोकिल कामिनी गीत गायइ श्री गुरुतणा रे ।
गाजइ-गाजाइ गगन गंभीर श्री पूज्य नी देशना रे ।
भवियण मोर चकोर थायइ शुभ वासना रे ।
सदा गुरु ध्यान स्नान लहरि शीतल वहइ रे ।
कीर्ति सुजस विसाल सकल जग मह महइ रे ।
साते खेत्र सुठाम सुधर्मह नीपज्जइ रे ।
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श्री गुरु पाय प्रसाद सदा सुख संपजइ रे ।
ज़िहा - जिहा श्री गुरु आया, प्रवर्ते जिह किण रे ।
दिन-दिन अधिक जगीस जो थाइज्जो तिह किणइ रे ।
ज्यां लग मेरु गिरिन्द गयणि तारा घणा रे ।
तां लगि अविचल राज करड, गुरु अम्ह तणा रे ।
परता पूरण पास जिणेसर थंभणउ रे ।
श्री गुरु ना गण ज्ञानहर्ष भवियण भणउ रे । कुशललाभ कर जोडि श्री गुरु पय नमइ रे । श्री पूज्यवाहण गीत सुणतां मन रमइ रे । जैन संतों की प्रासंगिकता इनके द्वारा प्रस्तुत समयानुरूप विचारों में भी है। इनकी चिंतन प्रणाली, विशिष्ट भावधारा, अभिव्यक्ति आदि को देखते हुए ऐसा प्रतीत होता है कि ये सभी शब्द तथा भाव तत्कालीन एवं सामायिक समाज की विचारधारा में प्रवाहित रहे हैं । मुनि मोहनलाल 'आमेट' की इन पंक्तियों में इस प्रासंगिक शब्दावली का उदाहण प्रस्तुत है
चुणोत्या है आज, चांद-तारां रै सामने विसवास 'र, बिचारांरै मुण्डागै
'बियां आपरी खिमता' रै, अन्तरिख - जुग में कती 'क, राख सकेला, बै आपरी साख ? 14
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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