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________________ आरंभ से आज तक का जैन साहित्य भारतीय - साहित्य की अनूठी उपलब्धि है । इस संदर्भ में आचार्य पुरुषोत्तमदास टण्डन की ये पंक्तियां बड़ी सटीक हैं, "इनकी बानी उसी रंग में रंगी हैं और उन्हीं सिद्धांतों को पुष्ट करने वाली है जिनका परिचय कबीर और मीरां ने कराया है- आंतरिक प्रेम की वही मस्ती, संसार की चीजों से वही खिंचाव, धर्म के नाम पर चलाई गई रूढ़ियों के प्रति वही ताड़ना, बाह्य रूपान्तरों में उसी एक मालिक की खोज और बाहर से अपनी शक्तियों को खींचकर उसे अन्तर्मुखी करने में ही ईश्वर के समीप पहुंचने का उपाय है। 15 वास्तव में जैन साधुओं, यतियों, आचार्यों के चिन्तन में समयानुरूप " और विज्ञान का समन्वय है । 18वीं शताब्दी से आरंभ हुए तेरापंथ के नवम आचार्य श्री तुलसी ने अणुव्रत आन्दोलन के माध्यम से अणु एवं विराट् का समन्वय किया है । यह वह आन्दोलन है जिसमें जाति, सम्प्रदाय, वर्ग, भाषा-भेद से ऊपर उठकर मनुष्य में मानवता को जागृत करने की क्षमता है। जैन सम्प्रदाय का पर्व पर्युषण इसी भाव की व्यापक अभिव्यक्ति है । मानव में समभाव का वह प्रतीक है । नेहरूजी द्वारा संस्थापित पंचशील के सिद्धांत में निहित अहिंसा तथा सहअस्तित्व की भावना हमारे सनातन और श्रमण संस्कृति के सोच का ही समन्वय है। इस प्रकार श्रमण-विचारधारा भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण स्तंभ है । सम्प्रदाय विशेष अथवा परम्परा विशेष में दीक्षित होकर भी जैन रचनाकारों ने समरसता एवं एकता का दर्शन दिया है । सांस्कृतिक पुनरुत्थान की चेतना प्रदान की है । जैन संत रचनाकार देशकाल एवं तत्संबंधी परिस्थितयों के प्रति पूर्णत: जागरूक रहे हैं। वे आध्यात्मिक परम्परा के अनुगामी तथा आत्मलक्षी संस्कृति में विश्वास रखते हुए भी लौकिक चेतना से विमुख नहीं रहे, क्योंकि इनका अध्यात्मवाद वैयक्तिक होते हुए भी जनकल्याण की भावना लिये हुए है। साथ ही सम्प्रदायमूलक साहित्य के सर्जन के उपरान्त भी इन कवियों ने अपनी रचनाओं में देश-काल से संबंधित और सांस्कृतिक पक्षों का निरूपण किया जिसमें अपने देश-प्रदेश की सांस्कृतिक परम्पराओं एवं उसकी उदारता, समता, एकता तथा समन्वयाधिकारिता का अच्छा चित्रण किया है । उदाहरणार्थ, 5वीं शताब्दी के कवि समयसुंदर ने अपनी रचना 'पुष्पसार चौपई' में स्पष्ट किया है कि उस समय भी माता-पिता अपनी पुत्री का विवाह उसकी इच्छा के विपरीत नहीं कर सकते थे । अपने पिता द्वारा सगाई तय कर देने की बात सुनकर रत्नावती अग्नि में जलने को तत्पर हो जाती है " येतात समाज, बोलइ रतनवती वचन, पावक पडू ससि प्राण, पुष्पसार परणण वात ॥ डी तात नई तुरत कहइ इते, मन मान्यो मुझे खंताजी, परणावइ गुण सुंदर परमइ, खरी अछत माणखंत, सेठ जाण्यो भाव सत्ता को तुरत गयो तस पास जी ॥ तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 Jain Education International For Private & Personal Use Only 89 www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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