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बहिरातम मूढा जग जेता, माया के फंद रहेता।
अंतरघट परमातम ध्यावै, दुर्लभ प्राणी तेना॥ मध्यकालीन साहित्य में विचित्र भक्तिधाराओं का विकास हुआ। निर्गुण और सगुण भक्ति-पद्धति के अनेक पंथ एवं सम्प्रदायों का आविर्भाव हुआ। जैन समाज में भी दिगम्बरश्वेताम्बर संप्रदायों के पंथ और गच्छों (84 प्रकार के गच्छों) का अस्तित्व रहा। फिर भी जैन साहित्य ने युगीन परिस्थितियों में धार्मिक समन्वय का परिचय दिया। वैष्णवधर्मी सम्प्रदायों की खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति से इनका साहित्य कोसों दूर रहा। उनका तो अर्हत् सदैव जिन (जितेन्द्र) ही रहा, क्योंकि जैनियों का इष्ट अर्हत् स्वपौरुष से भगवान है। राम-कृष्ण की भांति आरंभ से ही ब्रह्म के अवतारी नहीं। इसीलिए अर्हत् आठ कर्मों का क्षय कर शरीर को त्याग शुद्ध आत्मरूप में हमारे सामने प्रस्तुत होते हैं। यह तर्क-संगति ही जैन साहित्य की प्रासंगिकता की स्थापना करती है। जैन संतों ने मध्यकाल से आज तक भारतीय अन्तश्चेतना को सुदृढ़ तथा जागरूक बनाये रखने का निरन्तर प्रयत्न किया है।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने जैन, बौद्ध, सिद्ध साहित्य को धार्मिक नोटिस मात्र कहकर अपने इतिहास की विषयवस्तु से पृथक् कर दिया। किन्तु संत शब्द की व्यापक व्याख्या में जैन साधु भी संत ही है, क्योंकि वे भी सांसारिक और भौतिक विषयादि से ऊपर उठे हुए हैं। काया को साधकर इन्द्रियों को वशीभूत कर केवलज्ञान की प्राप्ति जैन साधना का अन्तिम लक्ष्य होता है। यही कारण है कि संत साहित्य की भांति ही जैन भक्ति साहित्य में बाह्याडम्बरों का विरोध है।
जैन कवियों ने अपनी रचनाओं में अपने नायकों को बाह्याडम्बरों का विरोध, सांसारिक असारता, चित्त शुद्धि का वर्णन करते हुए अपने गुरु द्वारा दीक्षित करवा कर संन्यासी बनाया है। संत रचनाओं में भी हमें यही चित्रण मिलता है। अन्तर है तो यही कि जैन साहित्य मुक्तक की अपेक्षा प्रबन्ध रूप में अधिक लिखा गया, जबकि संत साहित्य मुक्तक रूप में ही मिलता है।
जैन रचयिता मूलतः संन्यासी हैं। सांसारिकता से उन्हें कोई मोह नहीं। पर वह समाज में जीता है, उसकी साधना अथवा भक्ति का सामाजिक महत्त्व है, अत: उसका अवलोकन भी जनरुचि एवं इष्ट के अनुरूप होना आवश्यक है। इसीलिए उन्होंने अपने काव्य की काव्याभिव्यक्ति अत्यन्त सरस और सहज रूप में की है। उदाहरणार्थ समय सुन्दरकृत चार प्रत्येक बुद्ध चोचई नामक रचना में चंद्रजस के पिता की मृत्यु पर उसकी प्रेयसी मदनरेखा के पश्चात्ताप का चित्रण करते हुए कवि मार्मिक अनुभूति देता हैमयणरेहा इम चिंतवे धिग धिग माहरो रूप।
इण थी अनरथ उपनो मार्यो प्रीतम भूप॥ मति मारे मुज पुत्र ने मणिरथ माहरे काज।
सीन्प रतन राखण भणी जाउ किसमिस भाज। इम मन मांहे चिंतवी समझावी सुत सार।।
निसभर चाली एकली पूरब दिस सुविचार ॥2
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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