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________________ हो जाती है। धर्माराधना से आत्मा शुद्ध और स्वस्थ बनती है । जैन परंपरा में आत्मा की शुद्धता और अशुद्धता के हेतु हैं --संवर और आश्रव। कर्म ग्रहण का आत्म परिणाम या कर्म आगमन का द्वार आश्रव कहलाता है। कर्म निरोध का आत्म परिणाम या कर्म आगमन के द्वार का निरोध संवर कहलाता है। यह आश्रव और संवर की तात्त्विक परिभाषा है। आश्रव संसारभ्रमण का हेतु है और संवर मुक्ति का। पदार्थ-निष्ठा आश्रव है और आत्म-निष्ठा संवर । आश्रव का अल्पीकरण और संवर की वर्द्धमानता आध्यात्मिक जीवन की सफलता है। आध्यात्मिक आरोहण को गुणस्थान के माध्यम से भली-भांति हृदयंगम किया जा सकता है। मकान की ऊँची मंजिल और पहाड़ की चोटी तक पहुंचने में जो महत्त्व सीढ़ी का होता है, वही महत्त्व जैन दर्शन में आत्म-विकास के लिए गुणस्थान का है। गुणस्थान आरोहण का अर्थ हैआश्रव की कमी और संवर की वृद्धि। प्रथम गुणस्थान में आश्रव की उत्कृष्टता है और संवर का अभाव। चौदहवें गुणस्थान में संवर की उत्कृष्टता है और आश्रव का अभाव। जैन दर्शन का चिंतन और दृष्टिकोण व्यापक है। जैनदर्शन के अनुसार हर जीव में गुण है, अल्प या बहु-आत्म उज्ज्वलता और चैतसिक निर्मलता है, अत: हर जीव में गुणस्थान है। संसार का कोई भी जीव गुणस्थान से रहित नहीं है । गुणस्थान चौदह हैं तथा इनकी विविधता का आधार आत्म-विशोधि की तरतमता है। चौदहवें गुणस्थान के छूटने के बाद आत्मा मुक्त और सिद्ध बन जाती है। कर्मों का सर्वथा विलय हो जाता है। आत्मा समस्त गुणों से परिपूर्ण बन जाती है तथा सभी गुणस्थान कृतार्थ हो जाते हैं। जीव के दो प्रकार हैं--सिद्ध और संसारी। सिद्धों में गुणस्थान नहीं होता, क्योंकि वे कर्म और शरीर से सर्वथा मुक्त हो जाते हैं। सभी गुणस्थानवी जीव संसारी कहलाते हैं, क्योंकि वे कर्म और शरीर सहित होते हैं। हर प्राणी में व्यक्त या अव्यक्त सद्गुण होते हैं, यही गुणस्थान है। सम्यक् दर्शन, व्रत चेतना, अप्रमाद अवस्था आदि आत्मा के विशिष्ट गुण हैं, ये गुणस्थानों की आधारशिला है। विपरीत आस्था, अव्रत भावना, आत्म विस्मृति, कषाय परिणाम और आत्म-चंचलता-ये गुणस्थान नहीं हैं। संयम, समता, करुणा, सत्य, प्रामाणिकता, पवित्रता आदि से प्राणी गुणस्थान का अधिकारी बनता है। कर्म-विलय की तरमता के आधार पर संसारस्थ जीवों को चौदह वर्गों में विभाजित किया जा सकता है। कर्म के रंगमंच पर सबसे अधिक प्रभावशाली है— मोह या राग-द्वेष के परमाणु। मोह-विलय जीवन की सर्वोच्च सफलता है। चौदह गुणस्थान का स्वरूप अनंतानंत जीवों का आश्रय प्रथम गुणस्थान है। इसमें जीव की तत्त्व-श्रद्धा विपरीत होती है। जीव, साधु, मार्ग, धर्म और मोक्ष को यथारूप स्वीकार न करने वाला तथा अनंतानुबंधी कषाय चतुष्क को न भेद पाने वाला जीव मिथ्यादृष्टि कहलाता है। मिथ्या दृष्टि व्यक्ति में पायी जाने वाली आत्म-विशुद्धि मिथ्यादृष्टि गुणस्थान कहलाती है। अभव्य जीवों की अपेक्षा यह गुणस्थान अनादि-अनंत है। इस गुणस्थान के छूटने से जीव मोक्षगामी बन जाता है। सम्यक्त्व से मिथ्यात्व की ओर अग्रसर जीव में स्वल्पकालीन दूसरा गुणस्थान होता है। सम्यक्त्व और 82 - _ तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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