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जैन दर्शन में गुणस्थान : आत्मा से परमात्मा बनने की प्रक्रिया
-मुनि मदनकुमार
मनुष्य में विकास की प्रबल इच्छा होती है। भौतिक और आध्यात्मिक दोनों दृष्टियों से उसमें विकास की अर्हता हाती है। पदार्थ और चेतना को विकास के आधार पर तीन वर्गों में विभाजित किया जा सकता है--- अविकसित, विकासशील
और विकसित। पदार्थ के विकास के आधार पर राष्ट्रों का वर्गीकरण तथा चेतन के विकास के आधार पर प्राणियों का वर्गीकरण किया जाता है। पदार्थ मूर्त है, वह हमारी इन्द्रिय चेतना का विषय है। मनुष्य पदार्थ को जानता है, उसके महत्त्व और सामर्थ्य को जानता है, इसलिए भौतिक विकास करता है। सुख-सुविधा के नये-नये पदार्थों का आविष्कार करता है। मनुष्य आत्मा को जान जाये, उसके प्रति आस्था
और निष्ठा पैदा हो जाये तो जीवन में आध्यात्मिक विकास भी संभव है। यह सच है कि भौतिक विकास सरल है और आत्म-विकास कठिन। हम पदार्थ से घिरे हुए हैं। चारों ओर पदार्थ का एक छत्र शासन है। वह सहज बुद्धिगम्य है। आत्मा अमूर्त
और इन्द्रियातीत है। पदार्थ की तरह आत्मा भी शक्तिसंपन्न है। पदार्थ की शक्ति से मनुष्य परिचित है जबकि चेतना की शक्ति से अपरिचित। विज्ञान और तकनीकी के युग में पदार्थ की शक्ति को जाना गया है और उसका अभिव्यक्तिकरण भी किया गया है। कम्प्यूटर, रोबोट, टी.वी., टेलीफोन आदि पदार्थ-शक्ति के विकास के निदर्शन हैं। पूर्वजन्म स्मृति, अतीन्द्रिय ज्ञान, दूरबोध, अन्तर्दृष्टि आदि आत्म-शक्ति के विकास के प्रतिफल हैं।
आत्मा का शुद्ध, बुद्ध और सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा है। आत्मा अपने संयम और पौरुष से परमात्मा बनने की क्षमता रखती है। कर्म और कषाय से मुक्त आत्मा परमात्मा है। हमारी आत्मा अनंत चतुष्टयी से सम्पन्न है। उसमें अनंत ज्ञान,
दर्शन, सुख और शक्ति विद्यमान है। कर्मोदय से आत्मा आवृत्त, विकृत और प्रतिहत तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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