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________________ मिथ्यात्व के बीच की अवस्था का नाम सास्वादन सम्यग् दृष्टि है। सम्यक्त्व से च्युत होने पर थोड़ी देर सम्यक्त्व का स्वाद रहता है, यह सास्वादन सम्यग् दृष्टि नामक दूसरा गुणस्थान है। तीसरे गुणस्थान में तत्त्व विषयक संदेहशील अवस्था रहती है। निश्चयात्मक चिन्तन न होने से इसे मिश्र गुणस्थान कहते हैं। चौथे गुास्थान में सम्यग् दर्शन की प्राप्ति और आत्म-साक्षात्कार की भूमिका का निर्माण होता है। इसमें आत्मचिंतन की प्रक्रिया सुव्यवस्थित बनती है। इसमें सत्य के प्रति आस्था जागती है, किंतु अस्वरण नहीं। यथार्थ का बोध होने पर भी त्याग की चेतना विकसित नहीं होती है। पांचवे गुणस्थान में सत्य के आंशिक आचरण तथा छठे गुणस्थान में सत्य के संपूर्ण आचरण की भूमिका बनती है। पांचवे गुणस्थान में अव्रत रहने से देशविरति गुणस्थान तथा छठे गुणस्थान में अव्रत का समूल विच्छेद होने से प्रमत्त संयत गुणस्थान कहलाता है। सातवें गुणस्थान में आत्म-स्मृति, आत्म-उत्साह और आत्म-जागरूकता प्रकर्ष स्थिति में रहने से अप्रमत्त संयत गुणस्थान कहलाती है। सातवें गुणस्थान में आत्मोन्मुखता के साथ आत्मानंद और परमानंद की अवस्था प्राप्त होती है। यह अप्रमत्त साधक की महान् अवस्था है। जीवन में आत्मोत्कर्ष के क्षणों की उपलब्धि है। आठवें गुणस्थान में चैतन्य में अपूर्व पराक्रम की स्थिति का आगमन होता है। यह स्थिति दुर्लभ है। इसमें अभूतपूर्व आत्म-विशुद्धि होती है। इसमें मोह चेतना पर जबर्दस्त प्रहार होता है और इसमें प्रायः स्थूल कषाय की निवृत्ति हो जाती है, इसलिए इसे निवृत्तिबादर गुणस्थान कहते हैं। इससे आत्मारोहण की दो श्रेणियां निश्चित होती हैं। मोह कर्म को दबाने की प्रणाली उपशम श्रेणी तथा मोह कर्म को खपाने की प्रणाली क्षपक श्रेणी कहलती है। उपशम श्रेणी में अवरोध आता है तथा पुनः लौटने की स्थिति बनती है जबकि क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाला चैतन्य-विकास के शिखर पर पहुंच जाता है। उपशम श्रेणी को एलोपैथी चिकित्सा पद्धति तथा क्षपक श्रेणी को आयुर्वेदिक चिकित्सा पद्धति की उपमा दी जा सकती है। एलोपैथी रोग का शमन करती है जबकि आयुर्वेदिक रोग का समूल नाश कर देती है। नौवें गुणस्थान में संज्वलन क्रोध, मान और माया का सर्वथा क्षय या उपशम हो जाता है, इसे अनिवृत्ति बादर गुणस्थान कहते हैं । दसवें गुणस्थान में संज्वलन लोभ अत्यधिक सूक्ष्म मात्रा में रहता है। अत: इसे सूक्ष्म संपराय गुणस्थान कहते हैं। उपशम श्रेणी से आरोहण करने वाला मोह कर्म का सर्वथा उपशमन कर ग्यारहवें गुणस्थान में तथा क्षपक श्रेणी से आरोहण करने वाला मोह कर्म का सर्वथा क्षय कर बारहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है, इन्हें क्रमश: उपशांत मोह गुणस्थान और क्षीण मोह गुणस्थान कहते हैं । इन दोनों की समान आत्म-विशुद्धि होने से इन्हें वीतराग-अवस्था की प्रतिष्ठा मिलती है। बारहवें गुणस्थान वाला तेरहवें गुणस्थान में जाकर अवशिष्ट तीन धाति कर्मों का क्षय कर देता है तथा कैवल्य अवस्था को उपलब्ध हो जाता है। चिरकाल तक धर्मोद्योत के पश्चात् चौदहवें गुणस्थान में शैलेशी अर्थात् निष्प्रकंप अवस्था को प्राप्त कर लेता है, इन्हें क्रमशः सयोगी केवली और अयोगी केवली गुणस्थान कहते हैं। चौदहवें गुणस्थान की स्वल्प कालावधि को पूर्ण कर जीव मोक्ष या निर्वाण को प्राप्त कर लेता है तथा लोकांत में जाकर शाश्वत सुखों में लीन हो जाता है। .00 तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - - 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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