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________________ 5. बन्धक, 6. वेदक, 7. उपयोग, 8. चतु:स्थान, 9. व्यंजन, 10. दर्शनमोहोपशमना 11. दर्शनमोहक्षपणा, 12. संयमासंयमलब्धि, 13. संयमलब्धि, 14. चारित्रमोहोपशमना, 15. चारित्रमोहक्षपणा । 233 गाथाओं द्वारा सूचित अर्थ की सूचना यतिवृषभ ने 6000 श्लोक प्रमाण चूर्णि सूत्रों द्वारा दी और उनका व्याख्यान उच्चारणाचार्य ने 12000 श्लोक प्रमाण उच्चारावृत्ति के द्वारा किया । उसका आश्रय लेकर 60,000 श्लोक प्रमाण जयधवला टीका रची गई। आचार्य धरसेन (वीर वि.सं. 614 - 683 के मध्य ) के शिष्य पुष्पदन्त आचार्य ने सत्प्ररूपणा सूत्रों की रचना की । भूतबलि नामक आचार्य ने द्रव्यप्रमाणानुगम आदि लेकर आगे के ग्रंथ की रचना की । इस प्रकार षट्खण्डागम की रचना हुई। षट्खण्डागम के 6 खण्ड इस प्रकार हैं1. जीवस्थान, 2. क्षुद्रकबन्ध, 3. बन्धस्वामित्वविचय, 4. वेदना, 5. वर्गणा और 6. महाबन्ध । - जीवस्थान के अन्तर्गत आठ अनुयोगद्वार तथा नौ चूलिकाएं हैं। आठ अनुयोगद्वार इनसे सम्बंधित हैं- - 1. सत्, 2. संख्या ( द्रव्यप्रमाण), 3. क्षेत्र, 4. स्पर्शन, 5. काल, 6. अन्तर, 7.भाव, 8. अल्पबहुत्व | नौ चूलिकाएं ये हैं- 1. प्रकृति समुत्कीर्तन, 2. स्थान समुत्कीर्तन, 3 - 5. प्रथम, द्वितीय, तृतीय महादण्डक, 6. उत्कृष्ट स्थिति, 7. जघन्यस्थिति, 8. सम्यक्त्वोत्पत्ति, 9. गति - आगति । क्षुद्रकबन्ध के 11 अधिकार हैं- - 1. स्वामित्व, 2. काल, 3. अन्तर, 4. भंगविचय, 5. द्रव्यप्रमाणानुगम, 6. क्षेत्रानुगम, 7. स्पर्शानुगम, 8. नाना जीवकाल, 9. नाना जीव अन्तर, 10. भागाभागानुगम, 11. अल्पबहुत्वानुगम । बंधस्वामित्वविचय में निम्न विषय हैं - कर्मप्रकृतियों का जीवों के साथ बंध, कर्मप्रकृतियों की गुणस्थानों में व्युच्छित्ति, स्वोदय बन्धरूप प्रकृतियां, परोदयबन्धरूप प्रकृतियां । - वेदना खण्ड में कृति और वेदना नामक दो अनुयोगद्वार हैं। कृति सात प्रकार की है1. नामकृति, 2. स्थापनाकृति 3. द्रव्यकृति, 4. गणनाकृति, 5. ग्रंथकृति, 6. करणकृति, 7. भावकृति । , वेदना के 16 अधिकार हैं 1. निक्षेप, 2. नय, 3. नाम, 4. द्रव्य, 5. क्षेत्र, 6. काल, 7. भाव, 8. प्रत्यय, 9. स्वामित्व, 10. वेदना, 11. गति, 12 अनन्तर, 13. सन्निकर्ष, 14. परिमाण, 15. भागाभागनुगम, 16. अल्पबहुत्व । I वर्गणाखण्ड का मुख्य अधिकार बन्ध स्थानीय है जिसमें वर्गणाओं का वर्णन है । इसमें स्पर्श, कर्म, प्रकृति और बन्ध अधिकार भी अन्तर्भूत हैं । महाबंध में प्रकृत्यादि चार प्रकार के बंधों का विस्तृत वर्णन है । षट्खण्डागम पर आचार्य कुन्दकुन्द, शामकुण्ड, तुम्बलूर, समन्तभद्र, वप्पदेव, वीरसेन आदि अनेक आचार्यों ने 70 तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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