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प्राकृत ग्रंथों में कर्मसिद्धान्त का विश्लेषण
-डॉ. रमेशचन्द्र जैन
भारतीय दर्शन की प्रमुख शाखाओं- वैदिक, बौद्ध और जैन परम्परा में कर्मवाद पर विचार किया गया है किंतु जैन परम्परा में कर्मसिद्धान्त का जैसा सूक्ष्म एवं विशद विवेचन उपलब्ध होता है, वैसा अन्यत्र दृष्टिगोचर नहीं होता है। कर्मसिद्धान्त का विश्लेषण करने हेतु जैन आचार्यों ने अनेक स्वतंत्र ग्रंथ लिखे। द्वादशांगश्रुत के बारहवें अंग के जो पांच भेद बतलाए गए हैं, उनमें से चौथे भेद पूर्वगत के चौदह भेदों में से, दूसरे अग्रायणीय पूर्व की 14 वस्तुओं में से, पांचवीं चयनलब्धि के 20 प्राभृतों में से, चौथे कर्म प्रकृति प्राभृत के 24 अनुयोगद्वारों में से भिन्न-भिन्न अनुयोगद्वार एवं उनके अवान्तर अधिकारों से षट्खण्डागम के विभिन्न अंगों की उत्पत्ति हुई। पांचवें ज्ञान प्रवाद पूर्व की दसवीं वस्तु के तीसरे पेज्जदोसपाहुड़ से कषायपाहुड़ की उत्पत्ति हुई। गुणधरावार्यकृत कषायपाहुड़ की रचना षटखण्डागम से पूर्व हुई। श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता के अनुसार कर्मप्रकृति, शतक, पंचसंग्रह और सप्ततिका-ये चार ग्रंथ पूर्वाद्धृत कर्मशास्त्र के अन्तर्गत हैं। प्राकरणिक कर्मशास्त्र (विक्रम की आठवीं शती से लेकर सत्रहवीं शती तक निर्मित) में कर्मशास्त्र सम्बन्धी अनेक ग्रंथ समाविष्ट हैं। इनका आधार पूर्वोद्धृत कर्मसाहित्य है। पूर्वाद्धृत एवं प्राकरणिक कर्मशास्त्रों की रचना प्रायः प्राकृत में हुई। अधिकतर संस्कृत में कर्मशास्त्र पर टीकाटिप्पणियां ही लिखी गईं।
गणधर ग्रथित जिस पेज्जदोसपाहुड़ में सोलह हजार मध्यम पद थे अर्थात् जिनके अक्षरों का परिमाण दो कोड़ाकोड़ी, इकसठ लाख, सत्तावन हजार, दो सौ बानवे करोड़, बासठ लाख, आठ हजार था, इतने महान् विस्तृत ग्रंथ का सार 233 गाथाओं में आचार्य गुणधर (विक्रम की दूसरी शती का पूर्वार्द्ध) ने कषायपाहुड़ में निबद्ध किया। कषायपाहुड़ पन्द्रह अधिकारों में बंटा हुआ है --1. पेज्जदोषविभक्ति, 2. स्थितिविभक्ति, 3. अनुभागविभक्ति, 4. प्रदेशविभक्ति झीणाझीणस्थित्यन्तिक,
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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