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टीकाएं लिखीं। वीरसेन स्वामी ने सम्पूर्ण धवला लिखी तथा जयधवला (समादित ई. सन् 837) का पूर्व भाग रचा। धवला 72,000 श्लोक प्रमाण है। यह मणिप्रवालन्याय से प्राकृतसंस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी गई है। आचार्य वीरसेन जयधवला टीका अधूरी ही लिख पाये थे कि उनका स्वर्गवास हो गया। उस टीका की पूर्ति उनके सुयोग्य शिष्य जिनसेन ने की।
आचार्य शिवधर्म के कम्मपयडी और सतक दो ग्रंथ उपलब्ध हैं। इन दोनों ही ग्रंथों का उद्गमस्थान महाकम्मपयडि पाहुड़ है। इससे वे द्वितीय पूर्व के एकदेश ज्ञाता सिद्ध होते हैं। शिवशर्मसूरि का समय वि.सं. 500 के लगभग अनुमान किया जाता है।
सित्तरी अथवा सप्ततिका नामक एक कर्मविषयक ग्रंथ श्वेताम्बर परम्परा में बहुमान्य है। इसके अतिरिक्त कर्मस्तव, पंचसंग्रह, षड्शीति, बंधस्वामित्ववृत्ति, गोम्मटसार, सार्द्धशतक, लब्धिसार, कर्मग्रंथ, मन:स्थितिरीकरण प्रकरण तथा संक्रमकरण आदि अनेक ग्रंथ कर्मसिद्धान्त के विषय में लिखे गए।
दिगम्बर परम्परा में आचार्य नेमिचन्द्र द्वारा लिखित गोम्मटसार (रचनाकाल वि.सं. 1040) विशेष लोकप्रिय है। आचार्य नेमिचन्द्र ने अपने गोम्मटसार कर्मकाण्ड में लिखा है
जह चक्केण य चक्की छक्खण्डं साहियं अविग्घेण। तह मइचक्केण मया छक्खण्डं साहियं सम्मं ॥
जिस तरह चक्रवर्ती अपने चक्ररत्न से भरतवर्ष के छः खण्डों को बिना किसी विघ्नबाधा के साधता है या अपने अधीन करता है, उसी तरह मैंने (नेमिचन्द्र ने) अपने बुद्धि रूपी चक्र से षटखण्डों को (षटखण्डागम सिद्धान्त को) सम्यक् रीति से साधा है।
गोम्मटसार के दो भाग हैं - पहले भाग का नाम जीवकाण्ड है और दूसरे भाग का नाम कर्मकाण्ड है। जीवकाण्ड में जीव का कथन 20 प्ररुपणाओं द्वारा किया गया हैगुणस्थान, जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, 14 मार्गणाएं और उपयोग। जीवकाण्ड में 734 गाथाएं हैं। कर्मकाण्ड की गाथा संख्या 972 है। उसमें नौ अधिकार हैं -
1. प्रकृति समुत्कीर्तन, 2. बन्धोदयसत्व, 3. सत्वस्थानभंग, 4. त्रिचूलिका, 5. स्थानसमुत्कीर्तन, 6. प्रत्यय, 7. भावचूलिका, 8. त्रिकरणचूलिका और 9. कर्मस्थितिरचना।
ज्ञात समस्त कर्म साहित्य का ग्रंथमान लगभग सात लाख श्लोक है। इसमें वे केवल दिगम्बरीय कर्म साहित्य का ग्रंथमान लगभग 5 लाख श्लोक है। महाकर्म प्रकृतिप्राभृत और कषायप्राभृत जो कि दिगम्बर परम्परा के आगम ग्रंथ हैं और जिनसे सम्बंधित टीकाएं भी आगामिक साहित्य के अन्तर्गत ही गिनी जाती हैं, दिगम्बरीय साहित्य का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंश है।
कर्म का तात्पर्य-कर्म सिद्धान्त केवल भारतीय दर्शन की ही आधारशिला नहीं है, अपितु इस देश के मनुष्यों की समस्त सामाजिक क्रियाओं का यह निर्देशक है। कर्म शब्द तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 0
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