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________________ होता है। आयु के आधार पर गति, शरीर आदि नामकर्म के उदय अनुसार शुभ या अशुभ गोत्र की अभिव्यक्ति होती है। इस क्रम से सातों प्रकृतियों के उल्लिखित हो जाने पर अंत में अन्तराय का कथन किया गया है।" गोम्मटसार कर्मकाण्ड का मन्तव्य भी प्राय: इसी प्रकार का है ।” कर्मग्रंथ की परम्परा के अनुसार वेदनीय कर्म कथंचित् घातिया है, अतः इसका कथन घातिकर्मों के मध्य हुआ है। वीर्य चेतन के समान अचेतन में भी होता है, अत: वह चेतना का व्यवच्छेदक धर्म नहीं । वीर्य को प्रवाहित करने वाला अन्तराय कर्म कथंचित् अघातिया है, क्योंकि वह जीव के गुण का सर्वथा घात नहीं करता तथा उसका उदय नाम आदि के निमित्त से होता है, अत: उसका कथन उन सबके बाद किया गया है। 1 प्रस्तुत कर्म-व्यवस्था के संदर्भ में पंचसंग्रह टीका, कर्मविपाक टीका, श्री जयसोमसूरि कृत टब्बे एवं श्री जीवविजय कृत बालावबोध आदि का मन्तव्य बताते हुए पण्डित सुखलालजी का कहना है कि ज्ञानदर्शनात्मक उपयोग में ज्ञान प्रधान है, क्योंकि मोक्ष पर्यन्त सभी लब्धियां साकार उपयोग में प्राप्त होती हैं, अतः सर्वप्रथम ज्ञानावरण का कथन किया गया। मुक्त जीवों में ज्ञान के पश्चात् दर्शनोपयोग होता है, अतः तदनन्तर दर्शनावरण का व्यपदेश किया गया। इन दोनों का तीव्र उदय दुःख तथा क्षयोपशम सुख वेदन का कारण बनता है, अतः वेदनीय को तृतीय स्थान मिला। वेदनीय की अनुभूति रागद्वेष की उत्पत्ति का निमित्त बनती है, इसलिए उसके बाद मोहनीय का कथन किया गया। मोहाकुल जीव आरम्भ आदि के द्वारा आयु का बंध करता है, आयुष्य का उदय गति आदि नामकर्मों को भोगने का निमित्त बनता है, नामकर्म की विभिन्न प्रकृतियों से उच्चगोत्र और नीचगोत्र के विपाकोदय को अवकाश मिलता है, नीच और उच्चगोत्र का विपाक क्रमशः दानान्तराय के उदय और क्षयोपशम का निमित्त बनता है, इसलिए उदय सम्बंधी इस निमित्त - नैमित्तिक - भाव से मूल कर्मप्रकृतियों की उपर्युक्त क्रमशव्यवस्था उपयुक्त है। 18 इन आठ कर्म प्रकृतियों के क्रमश: पांच, नौ, दो, अट्ठाईस, चार, एक सौ तीन, दो और पांच भेद करने पर उत्तर प्रकृतियों की कुल संख्या 158 हो जाती है - पण - नव-दुअट्ठवीस-चउ- तिसय-दु पणविहं ।” जैनेतर दर्शनों में कर्म के इतने स्वभावों की चर्चा उपलब्ध नहीं होती । स्थितिबंध – ‘कालावरधारणं स्थिति: 20 आत्मा और कर्म पुद्गलों का संश्लेष एक निश्चित समयावधि के लिए होता है, उस कालखण्ड के बाद उन्हें अवश्य ही वियुक्त होना पड़ता है । काल की यह निश्चित्तता स्थिति-बंध कहलाती है। कर्म करते समय प्राणी की कषाय जिस मात्रा में उद्दीप्त होती है, अशुभ कर्मों की स्थिति उतनी ही सुदीर्घ हो जाती है । कषाय जितनी मंद, मंदतर स्थिति वाली होती है, शुभकर्मों का स्थितिबंध उतना ही अधिक होता है। इसके विपरीत उस समय किए गए अशुभकर्मों की स्थिति अल्प, अल्पतर होती है। तीव्र कषाय -अशुभ कर्मों की दीर्घस्थिति शुभ कर्मों का अबंध अथवा अल्पस्थिति । मंदकषाय - शुभ कर्मों की दीर्घस्थिति । अशुभ कर्मों की अल्पस्थिति । तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 Jain Education International - For Private & Personal Use Only 57 www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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