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________________ वेदनीय नाम जिस समय जघन्य कषायांश का उदय होता है उस समय वह अपनी प्रकृति का बंध नहीं कर सकता, जैसे क्रोध का अंतिम विपाकोदय क्रोध मोहनीय का बंध करने में असमर्थ होता है। कषाय की अनुदयावस्था में स्थिति बंध नहीं होता, क्योंकि कर्मों को संश्रृिष्ट करने वाले स्नेह का अभाव हो जाता है। यही कारण है कि अकषाय अवस्था में होने वाला ईर्यापथिक बंध द्विसामयिक स्थिति वाला होता है। कषाय की तुलना हम अन्य दर्शनों में दोष के साथ कर सकते हैं । दोषरहित प्रवृत्ति बंध का कारण नहीं बनती। प्रत्येक कर्म प्रकृति की जघन्य एवं उत्कृष्ट स्थिति का सामान्य नियम इस प्रकार है ---- कर्मप्रकृति उत्कृष्ट स्थिति जघन्य स्थिति ज्ञानावरण 30 कोटिकोटि सागर अन्तर्मुहूर्त दर्शनावरण 30 कोटिकोटि सागर अन्तमुहूर्त 30 कोटिकोटि सागर 12 मुहूर्त मोहनीय 70 कोटिकोटि सागर अन्तर्मुहूर्त आयुष्य 33 सागर अन्तर्मुहूर्त 20 कोटिकोटि सागर 8 मुहूर्त गोत्र 20 कोटिकोटि सागर 8 मुहूर्त अन्तराय 30 कोटिकोटि सागर अन्तमुहूर्त कर्मबंध की यह उत्कृष्ट और जघन्य स्थिति मूल प्रकृतियों की दृष्टि से समुच्चय रूप में बताई गई है। उत्तरप्रकृतियों की दृष्टि से उनमें कई स्थानों पर विषमता भी देखी जाती है, जैसे मोह कर्म की उत्कृष्ट स्थिति दर्शनमोह की अपेक्षा से निर्दिष्ट है, चारित्रमोह की उत्कृष्ट स्थिति 40 कोटिकोटि सागर है। वेदनीय कर्म की जघन्य स्थिति सकषायी अवस्था की अपेक्षा से बताई गई है, क्योंकि वीतराग के दो समय स्थिति वाले सातवेदनीय कर्म का बंध होता है। आयुष्य कर्म की उत्कृष्ट स्थिति भी देव और नारकों की अपेक्षा से कही गई है, मनुष्य एवं तिर्यंच का आयुष्य इतना नहीं होता। इसी प्रकार नाम, गोत्र आदि कर्मों के विषय में भी भिन्नताएं देखी जा सकती हैं। स्थिति बंध के सामान्य नियम के अनुसार कुछ अपवादों के अतिरिक्त प्रायः सभी प्रशस्त प्रकृतियों की स्थिति अप्रशस्त प्रकृतियों की अपेक्षा कम होती हैं, क्योंकि प्रशस्त प्रकृतियों का बंध मन्दतर, मन्दतम और अत्यधिक मंद कषाय के समय होता है। प्रकृतिबंध के समान स्थितिबंध की इतनी विस्तृत चर्चा जैनदर्शन के अलावा किसी भी दर्शन में दृष्टिगोचर नहीं होती। कर्मों की स्थिति जितनी अधिक होती है उतना ही उनका अबाधाकाल-सुप्त या अनुदय का काल लम्बा होता है। यही कारण है कि एक भव में बंधा हुआ कर्म उस भव में तथा बाद में भी कई भवों तक उदय में नहीं आता, फिर दीर्घकाल तक उदय में आता है। स्थिति और अबाधाकाल के विषय में सूक्ष्म ज्ञान रखने वाले व्यक्ति के मन में जघन्य अपराधी को आनन्द और सज्जन व्यक्ति को दु:खी देखकर भी कर्मवाद के प्रति 58 - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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