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जो मनोज्ञ गंध में तीव्र आसक्ति करता है, वह अकाल में ही विनाश को प्राप्त होता है। जैसे नाग-दमनी आदि औषधियों के गंध में गृद्ध बिल से निकलता हुआ रागातुर सर्प।
प्रत्यक्षतः सर्प दूसरों का घातक होता हुआ भी यहां गंध में आसक्त होता हुआ स्वयं के द्वारा ही अकाल में विनाश को प्राप्त होता है। इंदियचारेवस्से (इन्द्रियचोरवश्यः)
विषयों में प्रवृत्त इन्द्रियां भीतर बैठे चैत्यपुरुष को सुला देती है। अतः यहां चोर के प्रतीक के रूप में इन्द्रिय' शब्द का प्रयोग नवीनतम है
कप्पं न इच्छिज्ज सहायलिच्छू पच्छाणुतावे य तवप्पभावं ।
एवं वियारे अमियप्पयारे आवज्जई इंदियचोरवस्से॥38 'यह मेरी शारीरिक सेवा करेगा'-इस लिप्सा से कल्प, योग्य शिष्य की भी इच्छा न करें। तपस्या के प्रभाव की इच्छा न करें और तप का प्रभाव न होने पर पश्चात्ताप न करें। जो ऐसी इच्छा करता है वह इन्द्रियरूपी चोरों का वशवर्ती बना हुआ अपरिमित विकारों को प्राप्त होता है।
इन्द्रियां ज्ञानावरण और दर्शनावरण के क्षायोपशमिक भाव हैं। जब वे राग-द्वेषात्मक प्रवृत्ति में लिप्त हो जाती हैं तब मनुष्य का धर्मरूपी सर्वस्व छिन जाता है। अत: चोर के प्रतीक के रूप में इन्द्रियों का साभिप्राय प्रयोग उपयुक्त है। यह रूपकात्मक प्रतीक है। . निष्कर्ष
उत्तराध्ययन में प्रयुक्त प्रतीकों का शैली वैज्ञानिक-अध्ययन रचनाकार की प्रतीकनिर्मिति का अभिनव आयाम प्रस्तुत करते हैं। कवि कल्पना से निःसृत कुछ नए प्रतीक भी प्रयुक्त हुए हैं। एक ओर कवि कल्पना वस्तु-जगत् पर प्रतीकत्व का आरोप करती है तो दूसरी ओर ज्ञान-विज्ञान के अन्य स्रोतों के प्रतीकों के संग्रहण से भाषिक संरचना में नवीनता तथा रोमांचकता बढ़ जाती है। ऐसे प्रतीक भी हैं जो साहित्य जगत् में अल्प-प्राप्त या अप्राप्त हैं-यह ऋषि की अपनी सृजनात्मक प्रतिभा का प्रमाण है। इस प्रकार बहुविध प्रतीक-प्रयोग में रचनाकार सफल रहे हैं।
सन्दर्भ: 1. गीता रहस्य, पृ. ४३५ 2. श्रीमद् भागवत् की स्तुतियों का समीक्षात्मक अध्ययन पृ. २३२ 3. डॉ. विद्या-निवास मिश्र, रीति-विज्ञान पृ.५७ 4. काव्यबिम्ब, पृ.७-८ 5. साहित्यशास्त्र, पृ. 469 6. उत्तराध्ययन १/५ तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 -
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