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समूचे लोक में प्रकाश करने वाला एक विमल भानु उगा है । वह समूचे लोक में प्राणियों के लिए प्रकाश करेगा।
तेजस्विता का पुंज सूर्य यहां प्राणियों के अज्ञान तथा मोह रूपी अंधकार को नष्ट करने वाले अर्हत् रूपी भास्कर का प्रतीक बनकर उपस्थित हुआ है।
महावीर रूपी सूर्य का पृथ्वी पर अवतरण प्राणियों के लिए उज्जवल भविष्य का सूचक है।
सारही (सारथिः )
सारथि शब्द पथप्रदर्शक का प्रतीक है। कवि ने इस प्रचलित अर्थ को ध्यान में रखकर आचार्य के प्रतीक के रूप में यहां प्रस्तुत किया
अह सारही विचिंतेइ खलुंकेहिं समागओ । किं मज्झ दुट्ठसीसेहिं अप्पा मे अवसीयई । 1 34
कुशिष्यों द्वारा खिन्न होकर सारथी (आचार्य) सोचते हैं- इन दुष्ट शिष्यों से मुझे क्या ? इनके संसर्ग से मेरी आत्मा असवन्न-व्याकुल होती है ।
'सारही' का शाब्दिक अर्थ है - रथवान्, मार्गप्रदर्शक । प्रस्तुत प्रसंग में यह लाक्षणिक प्रयोग आचार्य के प्रतीक के रूप में हुआ है। जैसे सारथि उत्पथगामी या मार्गच्युत बैल या घोड़े को सही मार्ग पर ला देता है, वैसे ही आचार्य भी अपने शिष्यों को मार्ग पर ला देते हैं | 35
अंतकिरियं ( अन्तक्रियां )
मोक्ष के प्रतीक रूप में 'अंत' शब्द का प्रयोग
नाणदंसणचरित्तबोहिलाभसंपन्ने य णं जीवे अंतकिरियं कप्पविमाणो ववत्तिगं आराहणं
आहे ||
ज्ञान, दर्शन और चारित्र के बोधिलाभ से संपन्न व्यक्ति मोक्ष प्राप्ति या वैमानिक देवों में उत्पन्न होने योग्य आराधना करता है ।
अन्त का तात्पर्य है भव या कर्मों का विनाश । उसको फलित करने वाली क्रिया अन्तक्रिया कहलाती है। यहां तात्पर्यार्थ के रूप में 'अन्त' शब्द मोक्ष का प्रतीक है।
सप्पे (सर्पः )
दुर्व्यहार, कटु भाषण, छल-कपट आदि की प्रस्तुति के लिए 'सर्प' प्रतीक प्रयुक्त होता रहा है। उत्तराध्ययन के ऋषि ने इस प्रचलित प्रतीक को गंधासक्ति की अभिव्यंजना हेतु अपनी काव्य-भाषा का उपकरण बनाया है
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गंधे जो गिद्धिमुवेइ तिव्वं अकालियं पावइ से विणासं । रागाउरे ओसहिगंधगिद्धे सप्पे बिलाओ विव निक्खमंते ॥37
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तुलसी प्रज्ञा अंक 118
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