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________________ जयाचार्य ने भगवती की व्याख्या में कहा- अग्निद्रव्य सरिस- अग्नि जैसा द्रव्य। यह अग्निकायिक जीव नहीं है। विद्युत् एक ऊर्जा का प्रवाह है। यह सारा निर्णय हो गया। इस निर्णय के आधार पर फिर गुरुदेव ने यह घोषणा भी कर दी कि बिजली हमारी दृष्टि में अचित्त है, निर्जीव है। शास्त्रार्थ के अनेक आधारों पर यह सिद्ध हो गया कि अग्नि जीव नहीं, मात्र ऊर्जा है । तैजस वर्गणा के पुद्गल हैं, इसलिए निर्जीव है । यह हमारी मान्यता है। जैनों में भी कुछ लोग इसे सजीव मानते हैं। यह तो अपना-अपना विचार है। अगर कोई खोज न करे तो परम्परा से जो चल रहा है, वह माना जाता है। हमने तो चिन्तन किया, खोज की, अनुसंधान किया, प्रमाण ढूंढें और आगम के इतने प्रमाण उपलब्ध किए, जिनके आधार पर यह स्थापना करने में हमें कोई संकोच नहीं हुआ। यह कोई संशय में नहीं किया गया कि अग्नि अचित्त है या नहीं? अनुसंधान के आधार पर अच्छी तरह निश्चित हो गया कि यह मात्र पुद्गल है, ऊर्जा है, एक शक्ति है, अग्निकायिक जीव नहीं है। अब अपनी-अपनी परम्परा होती है। कुछ लोग ध्यान नहीं देते तो क्या कहा जाए? हाथ में घड़ी बंधी है तो कहते हैं कि सजीव है। घड़ी में बैट्री है क्या? ऊर्जा का एक स्पन्दन ही तो है। जुगनूं चमकता है तो आग जैसा लगता है, किन्तु वह आग तो नहीं है। औरों की बात छोड़ दें, हमारे शरीर में भी अग्नि है, पर वह सजीव नहीं, निर्जीव अग्नि है। हमारे शरीर में भी पौद्गलिक अग्नि है। आयुर्वेद को जानने वाला जठराग्नि को जानता है। भोजन करते हैं, वह किससे पचता है? जठराग्नि से पचता है। हमारे जठर यानी पेट की जो अग्नि है, उससे हमारा भोजन पचता है। जब कोई बीमार होता है तो वैद्य उसकी परीक्षा कर कभी-कभी कहते हैं – इसकी अग्नि मंद हो गई है। खाया हुआ पच नहीं रहा है। अग्नि जब तक ठीक रहे, भोजन का ठीक पाचन होता है, वह मंद हो जाए तो भोजन का पाचन नहीं हो पाता। हमारे शरीर में भी अग्नि है, विद्युत् है। शरीरशास्त्र की दृष्टि से देखें तो हर कोशिश का अपना पावर हाउस है। अरबों कोशिकाएँ हैं और हर कोशिका का अपना पावर हाउस है। इतनी अग्नि भरी पड़ी है शरीर के भीतर । यह बड़ी अद्भुत बात है कि शरीर की अग्नि कभी लीक नहीं होती। यदि हो जाए तो पूरे शरीर में जलन हो जाती है। शरीर अंगारा जैसा हो जाता है। ऐसे कई केस प्रेक्षाध्यान शिविरों में आए कि शरीर पूरा जलने लग गया। हमारे शरीर में भी अग्नि है। यह सब तैजस वर्गणा के परमाणु हैं, पुद्गल हैं। अब प्रश्न है कि चाहे माइक हो, चाहे घड़ी हो, हम उसे सचित्त नहीं मान सकते । आगम के आधार पर उसे सजीव नहीं सिद्ध किया जा सकता। इसलिए पूरी स्पष्टता रहे। बहुत से भाई आते हैं और कहते हैं कि घड़ी बँधी हुई है, संगट्टा करें या न करें? घड़ी हाथ में बंधी हुई है, आहारपानी बहराएँ या न बहराएँ? नहीं बहराओ तो आपकी इच्छा। हमें कोई आपत्ति नहीं है। वंदना करने में स्पर्श करो या नहीं, आपकी इच्छा। हमें कोई सैद्धान्तिक आपत्ति नहीं है, क्योंकि उसे हम सजीव नहीं, मात्र ऊर्जा मानते हैं। एक कठिनाई जरूर है हमारे सामने। परम्पराएँ अलग-अलग होती हैं, आचार्य अलग-अलग होते हैं। मैं जो मानता हूँ, यह बात सही है, जो मैं नहीं मानता, वह सारा गलत तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002 - __ 17 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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