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________________ है, ऐसा भ्रम पैदा कर देते हैं। यह कोई संगत बात नहीं है। पहले खोज करनी चाहिए, अनुसंधान करना चाहिए। हमारे सामने प्रश्न आया। कुछ कन्याओं ने महाश्रमणजी से प्रश्न पूछा कि काजू-बादाम देना सन्तों को कल्पता है या नहीं? अब यह सिद्धान्त कहां से आया? सिद्धान्त तो एक ही है कि जो शाकाहार है, शुद्ध भोजन है, जो निर्जीव है, वह साधु के लिए कल्पता है। चाहे काजू हो, चाहे बादाम हो, चाहे बाजरे की रोटी हो। अचित्त सारा कल्पता है। जो शाकाहार है, भक्ष्य है, अभक्ष्य नहीं है, वह सारा कल्पता है। कोई नहीं खाए, अच्छी बात है। कोई फलका नहीं खाए तो और अच्छी बात है। अभी यहां एक संन्यासी आया था। पता चला कि वह कई वर्षों से अन्न नहीं ले रहा है। साधना की दृष्टि से वह प्रयोग कर रहा है, यह अच्छी बात है। हम यह नहीं कहते कि सारा ही खाना है। पर लेने में दोष कहा जाए, यह गलत बात है। कोई दोष नहीं है। हमारे बहुत से साधु-साध्वियां हैं, जो छह विगय नहीं खाते। न दूध, न दही, कुछ भी नहीं खाते। अच्छी बात है। अपनी-अपनी साधना है। खाद्यसंयम करें , त्याग करें, इसमें आपत्ति नहीं, यह तो बड़ी अच्छी बात है। पर यह कहें कि दूध पीना दोषपूर्ण बात है, यह एक तरह की भ्रान्ति पैदा करना है। ऐसा नहीं करना है, दोष नहीं बतलाना है। ___ आचारांग सूत्र की टीका में एक बहुत सुन्दर बात कही गई है। एक मुनि ऐसा है जो अचेल रहता है और एक मुनि ऐसा है जो एक वस्त्र रखता है। एक मुनि ऐसा है जो दो वस्त्र रखता है और एक मुनि ऐसा है जो तीन वस्त्र रखता है। अब एक वस्त्र रखने वाला यह कहे कि दो वस्त्र रखने वाला ढीला है तो यह एकान्ततः मिथ्या बात है। मुनि को ऐसा कहना कल्पता नहीं है। साधना के अनेक प्रकार हैं। कौन-सा रास्ता चुनें? जैनों में और दूसरे भी बहुत से लोग क्रियाकाण्डों में उलझे रहते हैं। उन्हें यह सोचने को भी समय नहीं है कि अध्यात्म का कैसे विकास करें? विचार नहीं करते, यह उनकी इच्छा है, पर उन्हें इस बात का दोष क्यों दें कि वे अध्यात्म पर कोई विचार नहीं करते? किसी की रुचि तपस्या करने में है, किसी की उपवास करने में है। किसी की रुचि सामायिक करने में है, किसी की स्वाध्याय करने में है तो किसी की माला जपने में। अब उन्हें दोषी क्यों कहा जाए? साधना के क्षेत्र में अपनी-अपनी रुचि है। प्रश्न है कल्प और अकल्प का, सचित्त और अचित्त का। यह निर्णय हमारा स्पष्ट होना चाहिए कि सचित्त है या अचित्त? जब सिद्ध हो जाता है कि सचित्त नहीं है तो फिर लें या न लें, करें या न करें, अपनी-अपनी इच्छा है। किन्तु सिद्धान्ततः हमें यह समझ लेना है, जिससे भ्रान्ति न रहे। हम जानते हैं, कुछ रासायनिक क्रियाएँ ऐसी हैं, जिनके बारे में आज वैज्ञानिक जगत में जितना स्पष्ट हुआ है, शायद धार्मिक जगत में उतना स्पष्ट नहीं था। जैन दर्शन में तो ऊर्जा के बारे में बहुत विस्तार से वर्णन है। पर उनके बारे में जैन मुनि ही ठीक से नहीं जानते तो औरों की तो बात ही क्या? जैन दर्शन में आठ वर्गणाएँ और बयालीस वर्गणाएँ हैं वे। किस प्रकार स्थूल और सूक्ष्म वर्गणाएँ हैं, उनकी जानकारी नहीं है किसी को। यह ध्यान में रहे कि थोड़ा-सा पढ़ लेने से इनका पूरा ज्ञान भी नहीं होता। बहुत व्यापक और 18 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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