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________________ आगम के आधार पर विचार करें। तैजसकाय के पुद्गल पूरे लोक में व्याप्त हैं। आठ वर्गणाओं में एक वर्गणा है तैजस वर्गणा। उसके पुद्गल पूरे लोक में व्याप्त हैं । अग्नि कैसे होती है और अग्नि कहाँ होती है? इस पर आगम में विचार किया गया। बतलाया गया कि सजीव अग्नि तिर्यक् लोक में ही हो सकती है। न ऊंचे लोक में अग्नि है, न नीचे लोक में है। वहाँ अग्नि नहीं, ऊर्जा है। उसे अग्नि कहते हैं पर वास्तव में सचित्त अग्नि नहीं है। सचित्त अग्नि केवल मनुष्य लोक में, तिरछे लोक में ही हो सकती है। कह सकते हैं कि नरक लोक में तो बहुत तेज अग्नि है। सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन आदि में वर्णन मिलता है कि नरक लोक में कोई नैरयक जीव है, उसे निकाल कर यहां की अग्नि में डाल दिया जाए तो उसे लगेगा कि जैसे हिमालय में डाल दिया गया हो। इतनी भयंकर अग्नि का ताप है वहां । पर वह निर्जीव है। सजीव नहीं है, क्योंकि तिरछे लोक से नीचे सजीव अग्नि होती नहीं है। इसीलिए सूत्रकृतांग में कहा गया--अगणी अकट्ठो, बिना ईंधन की अग्नि, बिना काष्ठ की अग्नि। 'अग्नि' शब्द का प्रयोग तो किया गया है, पर वास्तव में अग्निकायिक जीव नहीं है। बिजली भी अग्निकायिक जीव नहीं है। एक तेजोलेश्या सम्पन्न मुनि है, जिसे तेजोपलब्धि प्राप्त है, वह कभी क्रोध में आकर उसका प्रयोग करता है, जैसे गोशालक ने महावीर पर किया था। भगवान महावीर यात्रा कर रहे थे। गोशालक उनके साथ था। एक संन्यासी पंचाग्नि ताप रहा था, उसने छेड़छाड़ की। क्रोध में आकर उसने तेजोलेश्या का प्रयोग कर दिया। शक्ति का प्रयोग किया, जलने की स्थिति आ गई। लगा कि भस्म हो जाएगा। उसी समय भगवान महावीर ने शीतल लेश्या का प्रयोग कर उसे शान्त कर दिया। तेजोलब्धि की शक्ति इतनी है कि अनेक प्रान्तों को वह भस्म कर सकती है। एक अणुबम से भी अधिक शक्तिशाली तेजोलब्धि का प्रयोग है। किन्तु वह सारा पुद्गल है, अजीव है, निर्जीव है। अब उसे अग्नि कह दें या आज की भाषा में विद्युत् । वह सजीव नहीं है। बिजली अग्नि नहीं है, इसका एक कारण तो यह है कि वह बिना वायु के जलती है। भगवती सूत्र में कहा गया है ---- 'न विना वाऊकाएण अग्गी पज्जलई।' वायु के बिना अग्नि जलती नहीं है। अग्नि को हमेशा ऑक्सीजन चाहिए। वायु नहीं मिलेगी, अग्नि नहीं जलेगी। ऊर्जा होगी, किन्तु अग्नि नहीं जलेगी। जहां बिजली का प्रसंग है, वहाँ वैक्यूम करना होता है। वायु का निष्कासन जरूरी है वहां। वहां ऑक्सीजन का सुयोग मिल जाए तो वह आग का रूप ले सकती है। किन्तु जहां ऊर्जा है, वहां अग्नि नहीं है। सूर्य का ताप कितना भयंकर होता है। आज तो सौर ऊर्जा का प्रयोग भी होने लगा है। चूल्हा भी जलता है, रसोई भी बनती है और भी अनेक कार्य होते हैं पर वह सारी निर्जीव अग्नि है । वह सजीव अग्नि नहीं है। विद्युत् है, अग्नि नहीं है। सौर ऊर्जा या जो भी ऊर्जा है, वह तैजस् परमाणु है यानी तैजस वर्गणा है, परमाणु है। इसलिए आगम में इन्हें अग्निसदृश द्रव्य कहा गया है, अग्नितुल्य द्रव्य। अग्नि जैसा द्रव्य है, इसलिए इसका नाम अग्नि रखा गया है। 16 - - तुलसी प्रज्ञा अंक 118 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.524613
Book TitleTulsi Prajna 2002 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShanta Jain, Jagatram Bhattacharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year2002
Total Pages138
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Tulsi Prajna, & India
File Size7 MB
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