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विद्युत् : सचित्त या अचित्त?
-आचार्य महाप्रज्ञ
भगवान महावीर का भारतीय दर्शन को एक मौलिक अवदान है - षड्जीवनिकाय का सिद्धान्त। जीवों के छह निकाय हैं- पृथ्वीकाय, अप्काय, तैजसकाय, वायुकाय, वनस्पतिकाय और त्रसकाय। इनमें पहले पांच स्थावरकाय हैं। त्रसकाय गतिशील हैं। स्थानांगसूत्र में बतलाया गया है--- पांच स्थावरकाय परिणत और अपरिणत – दोनों प्रकार के होते हैं, सचित्त और अचित्त-दोनों प्रकार के होते हैं। पृथ्वी सचित्त- सजीव भी होती है, अचित्त-निर्जीव भी होती है। जल सजीव और निर्जीव दोनों प्रकार का होता है। पानी बरसता है, वह सारा सचित्त है, ऐसा नहीं है। वह अचित्त भी हो सकता है, पर हमें पता नहीं लगता। अग्नि और वायुकाय भी सचित्त और अचित्त दोनों प्रकार के होते हैं।
एक नियम है- शस्त्र परिणत होने पर सचित्त अचित्त बन जाता है। सजीव, निर्जीव बन जाता है।
हमें विद्युत् के प्रश्न पर विचार करना है। विद्युत् सचित्त है या अचित्त?
आज बिजली का प्रयोग बहुत होता है। पूज्य गुरुदेव के शासनकाल में चिन्तन चला कि बिजली सजीव है या निर्जीव? पूज्य गुरुदेव बीदासर में विराज रहे थे। वहीं तीन दिनों तक हजारों व्यक्तियों के बीच चिन्तन चला, पक्ष-विपक्ष में बहुत से तर्क आए। आखिर निर्णय हुआ कि बिजली सजीव नहीं है। बिजली ऊर्जा है, जीव नहीं है, विद्युत को निर्जीव किस आधार पर माना गया? आखिर आधार क्या है? आधार दोनों हैं । आगम का आधार है। उससे भी बिजली निर्जीव सिद्ध होती है। वर्तमान के विज्ञान का तो है ही। विज्ञान ने तो इसे एक रासायनिक क्रिया माना है। अग्नि को भी जीव नहीं मानते तो भला बिजली का तो प्रश्न ही नहीं।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2002
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