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रहा, अतः हमें अपनी दृष्टि बदलनी होगी तथा वस्तु की अनन्तधर्मात्मकता या अनेकान्तात्मकता को वांछित स्वीकृति देनी होगी। तब हमारे पास 'स्यावाद की कथनशैली अपनाने के अतिरिक्त अन्य कोई उपाय नहीं बचेगा।' यहाँ तक कि जिन दर्शनों एवं दार्शनिकों ने 'स्याद्वाद' की कथन-पद्धति एवं अनेकान्तात्मक' वस्तुस्वरूप की स्वीकृति नहीं भी की है। उन्हें भी प्रकारान्तर से इन दोनों को मानना पड़ा है। कतिपय निदर्शन द्रष्टव्य हैं
"नासतो विद्यते भावो, नाभावो विद्यते सतः। उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः ॥3
भाष्य- ''एवमात्मनात्मनोः सदसतोः उभयोरपि दृष्ट उपलब्धोऽन्तः निर्णयः सत् सदेवासदेवेति त्वनयो यथोक्तयोः तत्त्वदर्शिभिः ।''
अर्थ- इस प्रकार 'सत्' आत्मा और 'असत्' अनात्मा– इन दोनों का ही यह निर्णय तत्त्वदर्शियों द्वारा देखा गया है अर्थात् प्रत्यक्ष किया जा चुका है कि 'सत्' सत् ही है और 'असत्' असत् ही है।
लगभगइसी तथ्य को परमपूज्य आचार्य कुन्दकुन्द इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं:"भावस्स णत्थि णासो, णत्थि अभावस्स चेव उप्पादो। एवं सदो विणासो, असदो जीवस्स णत्थि उत्पादो।"
अर्थ- 'सत्' रूप पदार्थ का नाश नहीं हो सकता है तथा 'असत्' का उत्पाद नहीं हो सकता है। पदार्थ अपने गुण-पर्यायों व उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य रूप रहते हैं।
एक अन्य निदर्शन देखें- 'नैकस्मिन्नसम्भवात''4
शांकरभाष्य- 'न चैषां पदार्थानामवक्तव्यत्वं सम्भवति । अवक्तव्याश्चेन्नोचयेरन्। उच्यन्ते चावक्तव्याश्चेति विप्रतिषिद्धम् ।'
अर्थ- ये पदार्थ सर्वथा अवक्तव्य हैं - ऐसा भी नहीं कहा जा सकता है, क्योंकि यदि वे सर्वथा अवक्तव्य हों, तो उच्चरित नहीं हो सकते । यदि उच्चारण में भी आते हैं और अवक्तव्य भी हैं- ऐसा तो विप्रतिसिद्ध (तुल्यबल विरोध) है। ____ उपनिषद्कार इस विषय में लिखते हैं- 'व्यक्ताव्यक्तम्,' अर्थात् वस्तु व्यक्त' और 'अव्यक्त' – दोनों रूप हैं। जैसे कि मेंहदी में हरा रंग व्यक्त है तथा लाल रंग अव्यक्त है। इसीलिए शंकराचार्य ने लिखा है कि -- ''महाद्भुताऽनिर्वचनीयरूपा।''
अर्थ- तत्त्व महान्, अद्भुत और अनिर्वचनीय है।
वस्तुतत्त्व के इस विशिष्टरूप को वस्तुस्वभाव के अनुसार ही समझा जा सकता है, 'तर्क' के व्यायाम द्वारा नहीं। आचार्य समंतभद्र लिखते हैं-''स्वभावोऽतर्कगोचरः ।।
जहाँ वेदान्तदर्शन सम्पूर्ण जगत् को अद्वैतब्रह्ममय कहता है; वहीं सांख्य, वैशेषिक
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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