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वैचारिक सहिष्णुता का सिद्धान्त : अनेकान्त
-डॉ. सुदीप जैन
___ मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की उत्पत्ति समनस्कता के कारण होती ही रहती है। किन्तु दिशाहीन एवं लोकहित से रहित विचारों को वस्तुतः बौद्धिकव्यापार का चिह्न नहीं माना गया है। खाली दिमाग शैतान का घर जैसी लोकोक्तियाँ ऐसे चिन्तनों को चरितार्थ करती हैं। परन्तु जो चिन्तन सुव्यवस्थित, तार्किक एवं दिशाबोधक होते हए भी पूर्वाग्रह अथवा अहंमन्यता के कारण पर-विचार-सहिष्णु हो जाते हैं, उन्हें ऐकान्तिक चिन्तन कहा जाता है। इसी कारण दार्शनिक जगत् में दो प्रकार के वैचारिक वर्गीकरण मिलते हैं- .
1. एकान्तवादी दार्शनिक विचारधारा 2. अनेकान्तवादी दार्शनिक विचारधारा।
भारतीय आर्य-संस्कृति की दो मूल धारायें हैं-1. श्रमण-परम्परा और 2. वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा। इनमें श्रमण-परम्परा अनेकान्तवादी चिन्तन की पक्षधर रही है और वैदिक-परम्परा एकान्तवादी विचारों की पोषक रही है, क्योंकि वेदों को एकान्तवादी दर्शन के रूप में माना गया है-एकान्तदर्शना वेदाः' -
___ इसी वैचारिक अन्तर के कारण इन दोनों धाराओं में व्यापक मतभेद भी रहे, और इसी कारण श्रमण-ब्राह्मणम् येषां च विरोधः शाश्वतिकः इत्यवकाशःजैसे वाक्य भी प्रचलन में आ गये।
__वस्तुतः प्रत्येक पदार्थ का स्वरूप अनेकान्तात्मक ही है। यह अनेकान्तात्मकता स्वयं वस्तु को ही इष्ट है, उसमें ही निहित है; तो उस पर आक्षेप या आपत्ति खड़ी करने का किसी भी व्यक्ति को क्या आधार है? आचार्य समन्तभद्र इसी बात को इन शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं—''यदीदं स्वयं समर्थेभ्यो रोचते तत्र के वयम् ।'
तथा किसी भी पसन्द या नापसन्द के आधार पर वस्तु का स्वभाव तो बदलने से तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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