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जैन-धर्म और अनेकांत को इनसे मुक्त बताते हुए हमें इनके आधार तत्त्व और प्रमाणों की पड़ताल भी कर लेनी चाहिए। जैन धर्म का धरातल भारत-भूमि है, बैशक भारत से बाहर भी यह फैला है और पहलवान होता जा रहा है। जहां कहीं हम जैनों या अनेकांतवादियों को देखें, पाएंगे कि तुलनात्मक रूप से वे अधिक सहिष्णु हैं, कम अनाग्रही हैं। दुराग्रह तो उनके निकट भी नहीं है। शोषण, विषमता, घृणा, वैमनस्य, अकरुणा भी जैनों में कम पाई जाएगी। इन विकृतियों को लेकर जहां कहीं भी अमानवीय कुछ घटा है तो उसमें जैनों की, अनेकांतवादियों की भागीदारी नगण्य ही मिलेगी ।
हम यह भी कहना चाहेंगे कि जैन और अनेकांत ही क्यों, कई अन्य भी हैं जो इनसे मुक्त माने जा सकते हैं। वस्तुतः आग्रही होने से ही कलह, अधीरता, कलुषता और ईर्ष्यावैमनस्य का प्रवेश होता है । यहीं हिंसा और असत्य की संभावना पैदा होती है और अंततः समन्वय, उदारता और परस्परता का श्रेष्ठ मार्ग विखंडित होता है। तभी यथार्थ से होकर अयथार्थ की ओर आमुख होने की श्रृंखला बल पकड़ती है और तादात्म्यता नष्ट होने लगती है ।
भारतीय संदर्भ में यदि हम अनेकांत पर दृष्टिपात करें तो कहना होगा कि अनेकांत ही यहां की भाव-भूमि है, अनेकांत ही यहां की रस सलिला और आलोक- रश्मियां हैं, क्योंकि विश्व में भारत ही एक ऐसा देश है जहां विविध वर्ग, विविध धर्म, भाषा, वेष, जाति समुदाय, रहन-सहन और खान-पान सब-कुछ विविध हैं। इतनी विराट् विविधता अनेकांत के बल पर टिकी हुई है • यह निर्विवाद स्वीकारोक्ति होनी चाहिए । फिर भी अनेकांत के सामाजिक अभिप्रायों पर गवेषणा की नितांत आवश्यकता है और शास्त्रज्ञों का यह दायित्व है कि इसके सामाजिक अभिप्रायों का खुलासा करें।
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भगवान महावीर के इस छब्बीस सौंवें जन्म शताब्दी वर्ष पर देश भर में न जाने कितने और कैसे-कैसे आयोजन होंगे, लेकिन देश की मनीषा के लिए यह भी विमर्शनीय होना चाहिए कि अनेकांत के एक-एक फलक को जन-सामान्य के लिए बोधगम्य बनाने की दिशा में कुछ अभिक्रम किए जाएं।
संदर्भ :
1. श्रमण महावीर, ले. आचार्यश्री महाप्रज्ञ
2. श्रमण महावीर, ले. आचार्य श्री महाप्रज्ञ ।
3. आयार चूला, 15/34- श्रमण महावीर, ले. आचार्यश्री महाप्रज्ञ ।
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पत्रकार
भीनासर - 334403 बीकानेर (राजस्थान)
1 तुलसी प्रज्ञा अंक 113 114
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