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वर्ष पूर्व जिस सिद्धांत को प्रतिपादित किया – यह अनेकांत अगर आज विश्व-स्तर पर . विमर्श का निमित्त बना हुआ है तो हम यह मत तो तत्काल ही स्थापित कर सकते हैं कि अनेकांत काल की अंधी घाटियों में गुम हो जाने वाला सिद्धांत नहीं माना जा सकता। अलबत्ता यह अवश्य माना जाएगा कि भगवान महावीर द्वारा प्रतिपादित यह सिद्धांत जैन धर्म की हद में कैद करके ही देखा जाता रहा है। इस सिद्धांत के साथ यह अन्याय भी क्या केवल इसीलिए नहीं हआ कि भगवान महावीर जैन-धर्म के अधिष्ठाताओं में से रहे और चौबीस-वें तीर्थंकर के रूप में प्रतिष्ठापित होकर भी कालांतर में केवल जैनियों के कहलाए।
हम अनेकांत के एक बिन्दु की विवेचना पर आएं। इसकी शास्त्रीय व पांडित्यपूर्ण मीमांसा से बचते हए और धार्मिक-आध्यात्मिक पृष्ठभूमि को ध्यान में रखते हुए इसके सामान्य पहलुओं पर सोचें तो हम पाते हैं - अनेकांत अनाग्रह का सिद्धांत है और हर विचार, दर्शन या सिद्धांत पर बिना किसी पूर्वाग्रह के सम्मानपूर्वक विमर्श की स्वतंत्रता देता है। अनेकांत कहता है, जो बात जिस दृष्टिकोण से कही गई है, उसी दृष्टिकोण से उसे समझने का प्रयत्न किया जाए, विरोधी बात भी किसी न किसी रूप में सही हो सकती है- यह दृष्टिकोण अनेकांत का है । ऐसा होने से ही हठधर्मिता और पक्षपात की संभावना समाप्त होती है। उदार
और समन्वयवादी दृष्टिकोण से कोई भी विवाद हल हो सकता है। आज आग्रहों-दुराग्रहों में रच-पच जा रहे समाज के लिए अनेकांत की यह दृष्टि समन्वय, सहिष्णुता और परस्परता का पाठ पढ़ाती प्रतीत हो रही है। हमारा यह परिवेश - आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक
और राजनीतिक आग्रहों से भरा हुआ है, जिसने हमें खांचों-खांचों में विभाजित कर दिया है। न केवल विभाजित ही किया है, कहीं से आ रही श्रेयस् बात भी इसी वजह से अनसुनी
और अविचारित रह जाती है। देखा जाए तो अनेकांत का हस्र भी इसी संकीर्णता का परिणाम है, क्योंकि अनेकांत एक धर्म-विशेष और एक धर्म-विशेष के अधिष्ठाता की फलश्रुति है। दुर्भाग्य से धर्म के साथ भी तो उसके दुराग्रहपन, कठमुल्लापन और कट्टरपन के भय (बहुत अंशों तक सच) जुड़े हैं। भले कोई धर्म ऐसा न हो, भले कोई सिद्धांत या दर्शन ऐसे न होंजैसे कि जैन धर्म और अनेकांत के सिद्धान्त के बारे में दृढ़तापूर्वक कहा जा सकता है कि ये कठमुल्लापन और कट्टरपन से सर्वथा मुक्त हैं।
इस दृष्टि से जैन-धर्म धर्म के वर्तमान रूढ़ अर्थ से मुक्त है। यह एक ऐसा मत है, एक ऐसी विचारधारा है, जो कट्टरपन से सदा दूर रहते हुए सत्यान्वेषण की खुली दृष्टि से संपन्न है। वैचारिक आग्रहों की जंजीरें तोड़ने में अनेकांतवाद का सिद्धांत सर्वाधिक कारगर साबित हो सकता है। अनेकांतवाद वैचारिक स्तर पर खण्डन-मण्डन से मुक्त रहते हुए हर विचारधारा को समादर दृष्टि से देखने की स्वतंत्रता देता है। इस रूप में यह कहा जा सकता है कि अनेकांत को मानने वालों का न संप्रदाय के प्रति आग्रह हो सकता है और न जाति, समाज या भाषा-भेष के प्रति । इस रूप में जैन मतावलंबी जातिवाद से मुक्त है। आज भी इस मत के लोगों में जातीय कट्टरता नगण्य है। जातीय स्तर पर होने वाले विवादों की घटनाएं बताती हैं कि जैन-जन उनसे सर्वदा पृथक् रहे हैं। तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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