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आदि अन्य वैदिक-दर्शन-जगत् को भेदाभेद एवं एकानेकरूप प्रतिपादित करते हैं । यदि ब्रह्म
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अद्वैत है, तो जीव की सत्ता है या नहीं ? • इसका उत्तर देते हुए गीताकार लिखते हैं‘“ममैवांशो जीवलोके जीवभूतः सनातनः' अर्थात् इस जीवलोक में समस्त जीवराशि मुझ ब्रह्म या ईश्वर का ही सनातन अंश है। इसी बात को संत तुलसीदास (रामचरितमानस, बालकाण्ड) लिखते हैं- 'ईश्वर - अंश जीव अविनाशी, चेतन अमल सहज सुखराशी।"
यह अंश - अशी का स्वतंत्र सनातन अस्तित्व ' द्वैतवाद' का पोषक है ।
'वेद' भी इस तथ्य का समर्थन करते हैं— 'एकं सत् विप्रा बहुधा वदन्ति'' अर्थात् उस एक सत् को ही विद्वज्जन अनेक प्रकार से कहते हैं।
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जैनों की 'स्याद्वाद' शैली के द्वारा वस्तु के अनेकान्तात्मक की स्वीकृति की पुष्टि शंकराचार्य ने भी की है—
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'अपरे वेदबाह्या दिगम्बरा एकस्मिन्नेव पदार्थे भावाभावौ मन्यते " अर्थात् अन्य जो वेदबाह्य दिगम्बर लोग हैं, वे एक ही पदार्थ में भाव (अस्ति) और अभाव (नास्ति) धर्मों को युगपत् मानते हैं।
ऐसा नहीं है कि अनेकांत की अवधारणा जैनेतरों में नितांत अस्वीकृत रही है। वैदिक वाङ्मय ने भी अनेकांत के तत्त्व मिलते हैं, भले ही उन्होंने अनेकांत के सिद्धान्त को स्वीकार न किया हो
असति सत् प्रतिष्ठितं, सति भूतं प्रतिष्ठितम्" अर्थात् 'असत्' में ही 'सत्' प्रतिष्ठित है, 'सत्' में भी 'असत्' प्रतिष्ठित है।
'अनेकान्तवाद' यह एक सिद्धान्त ही नहीं अपितु एक विशिष्ट चिन्तशैली का भी परिचायक है, जो पर- विचार - सहिष्णुता का मंत्र प्रदान करता है। एकान्तवादी चिन्तन को प्रकारान्तर से 'वैचारिक हिंसा' भी विद्वानों ने माना है । 'अनेकान्तवाद' के इस पक्ष पर प्रख्यात मनीषी डॉ. मंगलदेव शास्त्री के विचार मननीय हैं—
'अनेकांतवाद' का मौलिक अभिप्राय यही हो सकता है कि तत्त्व के विषय में आग्रह न होते हुए भी उसके विषय में तत्तदवस्था भेद के कारण दृष्टिभेद संभव है। इस सिद्धान्त की मौलिकता में किसको सन्देह हो सकता है? क्या हम
'श्रुतयो विभिन्नाः स्मृतयो विभिन्ना नैको मुनिर्यस्य मतं न भिन्नम् ।' (महाभारत)
'यस्यामतं तस्य मतं यस्य न वेद सः ।
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अविज्ञातं विजानतां विज्ञातमविजानताम् ॥' 2 इत्यादि वचनों को मूल में अनेकान्तवाद का ही प्रतिपादक नहीं कह सकते ? दर्शन शब्द ही स्वतः दृष्टिभेद के अर्थ को प्रकट करता है। इस अभिप्राय से जैनाचार्यों ने अनेकान्तवाद के द्वारा दार्शनिक आधार पर विभिन्न दर्शनों में विरोध भावना को हटाकर परस्पर स्थापित करने का एक सत्प्रयत्न किया है।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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