________________
अपने अभिनिष्क्रमण के साथ महावीर ने दीक्षित होने का संकल्प लेते हए कहा''मेरी स्वतंत्रता में बाधा डालने वाली जो भी परिस्थितियां उत्पन्न होंगी, उनका मैं सामना करूंगा, उनके सामने कभी नहीं झुकूगा । मुझे अपने शरीर का विसर्जन मान्य है, पर परतंत्रता का वरण मान्य नहीं होगा।'' हम ध्यान दें- जिन भगवान महावीर की छब्बीस सौंवीं जन्म-जयंती समूचा राष्ट्र वर्ष-भर मनाने वाला है, उन महावीर ने अपनी स्वतंत्रता के लिए अभिनिष्क्रमण किया था। राष्ट्रों की स्वतंत्रता के प्रति सचेष्टता के इस काल में महावीर की तरह वैयक्तिक स्वतंत्रता के प्रति उतनी सचेष्टता आज नजर नहीं आ रही।
महावीर की साधना की फलश्रुति उनका अनेकांत और स्याद्वाद का दर्शन है। अहिंसा, अपरिग्रह और सत्य के सूत्रों से वे वैयक्तिक स्वंत्रता की गारण्टी देते प्रतीत होते हैं। इसी तरह ब्रह्मचर्य और अस्तेय के सूत्र समाज में व्याप्त अराजकता को नियंत्रित कर देने के सहज अस्त्र सिद्ध हो सकते हैं। महावीर के इन्हीं पांच सूत्रों और उनके अनेकांत दर्शन पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विशद चर्चा की आवश्यकता है।
अनेकांत या स्याद्वाद किसी अन्य सिद्धान्त के खंडन-मंडन में विश्वास नहीं करता। अनेकांत का आशय ही अन्य विचारों को समझने का विनम्र प्रयास है. अनेकांत नहीं मानता कि अन्य सिद्धान्तों का खंडन किए बिना अपने सिद्धांत की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। अनेकांत के मान्य व्याख्याकार आचार्यश्री महाप्रज्ञजी कहते हैं- ऐसा मान लिया गया है कि अपने से भिन्न सिद्धांतों और नीतियों का खण्डन किए बिना स्वीकृत सिद्धांतों की प्रतिष्ठा नहीं की जा सकती। अनेकांत का दृष्टिकोण इसके विपरीत है। उसके अनुसार स्वीकृत सिद्धांतों और नीतियों की सच्चाई तभी प्रकट होती है जब वे अपने सक्रिय और दूसरों के प्रति तटस्थ होते हैं । वे एक जगह कहते हैं किसी वस्तु को एक दृष्टिकोण से मत देखो। अपनी पूर्व धारणा के दृष्टिकोण से मत देखो। वस्तु में जो है, उसे ही देखो और जितने वस्तु धर्म हैं, उतने ही दृष्टिकोण से देखो। भारतीय मानस में आज भी अनेकता में एकता और विविधता में समरसता का परिदृश्य दृष्टिगत होता है, इससे अनेकांत की उपरोक्त व्याख्या की पुष्टि होती है।
तब भी यह कहना मुनासिब नहीं होगा कि अनेकांत-दृष्टि भारतीय जन-मानस में आज व्यापक स्तर पर अपनी गहरी पैठ बनाए हए है । आज समाज जिन मान्य सिद्धांतोंविचारों से संचालित है, उनमें अनेकांत के लिए कितना स्थान है? अपनी सुविधा या श्रद्धा के लिए इस सिद्धांत का राग-अलाप यदि कहीं होता है तो वह सर्वदा मान्य नहीं कहा जा सकता, अन्यथा सचाई यही है कि अनेकांत या स्याद्वाद आज धर्म-क्षेत्र में ही चर्चा का विषय है।
दार्शनिक-सिद्धांत और आदर्श कितने ही बेहतर रहे हों, व्यवस्था-संचालन में उनकी कोई अहम भूमिका नहीं रही। इसमें तो राजनीतिक विचारधाराओं का ही योग महत्त्वपूर्ण रहा है। अनेकांत दर्शन और उससे निःसृत समतावाद व समभाव का भी कोई प्रभाव किसी राजनीतिक विचारधारा पर वैसा ही परिलक्षित नहीं होता, भले समाजवाद व साम्यवाद जैसी राजनीतिक विचारधारा के ये आधारबिन्दु ही क्यों न रहे हों।
66
-
- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org