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परिवार का होना बहुत मूल्यवान नहीं है, मूल्य है पारिवारिक सौहार्द एवं शांति का । शांति के अभाव में जीवन टिक तो सकता है, किन्तु वह समरसता और जीवट नहीं रह पाता जो व्यक्ति को आह्लाद की अनुभूति देता है ।
पारिवारिक शांति परिवार की वह स्थिति है जहां परिवार के सदस्यों के बीच सौहार्दपूर्ण व्यवहार के साथ परस्पर सहयोग एवं विकास के लिए आत्मिक तत्परता का भाव निहित हो । पारिवारिक शांति परिवार के विघटन को ही नहीं रोकती, परिवार के पुनर्गठन का कार्य भी करती है। परिवार प्रेम पाने, प्रेम करने, सुरक्षा एवं यौन संबंधों के साथ-साथ मानसिक एवं भावनात्मक संबंधों की प्रवृत्ति पर टिका है। जब तक मानव की ये प्रवृत्तियां रहेंगी, पारिवारिक संगठन विघटन के अनेक तत्त्वों के बावजूद बना रहेगा ।
पारिवारिक अशांति
परम्परागत परिवार स्थिर प्रकार के थे, उनमें सामाजिक गतिशीलता कम थी तथा स्त्रियों का परिवार ही एक मात्र आश्रय स्थल था। आधुनिक परिवारों में परिवार का अपने सदस्यों पर नियंत्रण कम हुआ है, उनमें एकता और विश्वास का अभाव प्रत्यक्ष देखा जा सकता है। कामकाजी महिलाओं की समस्या ने न केवल बच्चों के विकास को अवरुद्ध किया है, अपितु पति-पत्नी के झगड़े भी बढ़े हैं। वैवाहिक बंधन शिथिल हुए हैं एवं लैंगिक संबंधों में विश्वसनीयता के प्राचीन आदर्श पर कुप्रभाव पड़ा है। परिणामतः आधुनिक परिवारों में न केवल अस्थिरता बढ़ी है, उनका नैतिक पतन भी हुआ है। पारिवारिक स्थायित्व एवं शांति समान व्यक्तिगत संबंधों पर निर्भर है। ये संबंध पारिवारिक तो होते ही हैं, प्रत्येक सदस्य दूसरों के साथ सहयोग करता हुआ अपनी भूमिका का निर्वाह भी करता है। जब कभी इन समूहगत संबंधों में दरार आती है तो पारिवारिक अशांति प्रत्यक्ष हो जाती है ।
अशांति का सामाजिक एवं मनोवैज्ञानिक संदर्भ
परिवार में शारीरिक दण्ड एक सामान्य घटना है। शारीरिक दण्ड एक बच्चे को यह बतलाता है कि उसे कौन-सा कार्य करना चाहिए और कौन-सा कार्य नहीं । इस सबक के अतिरिक्त कुछ अन्य सबक भी उसके व्यक्तित्व के अभिन्न अंग बन कर दूसरों के प्रति उसके दृष्टिकोण को प्रभावित करते हैं। जैसे उसे प्यार करने वाले लोग ही उसे पीटते भी हैं । दण्ड दूसरे परिवार के सदस्यों को पीटना भी नैतिक रूप से सही ठहरा देता है और अन्ततः यही सबक एक व्यक्ति के व्यक्तित्व एवं दृष्टिकोण का अभिन्न अंग बन कर पारिवारिक संबंधों विशेषकर बच्चे और अभिभावक एवं पति-पत्नी के संबंधों में शारीरिक दण्ड को उचित ठहरा देता है। परिवार में हिंसा का निरीक्षण भी अधिकांश व्यक्तियों के लिए हिंसा के प्रशिक्षण का सशक्त स्त्रोत होता है। प्रताड़ना के शिकार व्यक्ति ऐसे दुर्व्यवहार अथवा हिंसा को एक मूल्य समझने लगते हैं। हमारे सांस्कृतिक मानक भी परिवार के सदस्यों को प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से ऐसे शारीरिक दण्ड एवं दुर्व्यवहार की अनुमति देते हैं। मार-पीट अथवा परस्पर के दुर्व्यवहार से बचना चाहिए - ऐसे अनुभवों के बावजूद प्रायः यही सबक ध्यान में रखा जाता है कि
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2001
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