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पारिवारिक शान्ति और अनेकान्त
मानव समूह में परिवार सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण एवं प्राथमिक समूह है। अहिंसा, शांति, प्रेम और सहिष्णुता के धरातल पर ही परिवार की रचना सुदृढ़ हो सकती है। शारीरिक शक्ति पर आधारित अनियंत्रित सत्ता से प्रारम्भ होकर न्याय तथा पारस्परिक सहयोग पर आधारित समता में ही पारिवारिक जीवन का विकास हुआ है। प्रौद्योगिक क्रान्ति, वैज्ञानिक उपलब्धियों एवं यंत्रों के आविष्कार ने • उपयोगितावादी प्रवृत्ति को बढ़ा दिया है। फलतः व्यक्ति परिवार रूपी उस इकाई से मुंह मोड़ रहा है जिसने व्यक्ति में समतावादी संस्कृति एवं सुख-दुख बांटने की प्रवृत्ति को विकसित किया था। कोई भी व्यक्ति या राष्ट्र चाहे कितना भी विकास क्यों न कर ले, मूल व्यवस्था जो मानवता व मानवीय मापदण्ड की आधारशिला है, यदि उस पर ही कुठाराघात होने लगे तो विकास को अनर्थ में बदलने की संभावनाएं प्रबल हो जाती हैं। इसलिए व्यक्ति और समाज के लिए केन्द्र बिन्दु का कार्य करने वाले परिवार को बचाने में विश्व को प्रयत्नशील होना पड़ रहा है।
-डॉ. बच्छराज दूगड़
व्यक्ति के लिए मौलिक आवश्यकताओं की पूर्ति ही पर्याप्त नहीं है, उसके सर्वांगीण विकास के लिए भावनात्मक सुरक्षा, ममत्व की ठंडी छाया, स्नेह और प्रेम का स्रोत तथा विश्वास एवं संस्कार निर्माण की आवश्यकता भी होती है, जिसकी पूर्ति परिवार ही कर सकता है। व्यक्ति बिना परिवार जी तो सकता है पर उस जीवन की कल्पना कितनी भयावह होगी जिसमें भावनाओं के आदान-प्रदान के लिए कोई हमदर्द नहीं, समय के झंझावातों को झेलने में सहायता करने वाला एवं समस्या के समाधान सूत्र सुझाने वाला कोई न हो । यही कारण है कि विश्व के समाजशास्त्री एवं मनोवैज्ञानिक परिवार की प्रासंगिकता को पुनः स्वीकार करने लगे हैं।
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| तुलसी प्रज्ञा अंक 113 114
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