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अनेक मतभेद भी हैं । यदि अनेकान्त के आधार पर मतभेद का मूल खोजा जाए, भिन्न विचारों की समीक्षा की जाए तो शायद भेद के लिए कितना बचेगा, मैं कह नहीं सकता। हो सकता हैकुछ भी न बचे। किन्तु इस दशा में बहुत कम काम हुआ है। अनेक प्रसंगों में आग्रह बढ़ाने में ज्यादा रस लिया गया, अनेकान्त का प्रयोग नहीं किया गया। आज हमारे सामने प्रश्न है—जैन समाज को विरासत में जो एक महान् दर्शन मिला है, जगत् को देखने का एक सम्यक और व्यापक दृष्टिकोण मिला है, यदि उसका सम्यक् प्रयोग किया जाए तो शायद अनेकान्तवाद पूरे संसार को एक नया दृष्टिकोण और एक नया दर्शन दे सकता है। अनेकान्तवाद का यह दृष्टिकोण अनेक मिथ्या अभिनिवेशों, आग्रहों को मिटाने और एक सामंजस्यपूर्ण समाज की संरचना करने में बहुत सहयोगी बन सकता है, उपयोगी हो सकता है।
आचार्य श्री महाप्रज्ञ ने अनेकान्त को अन्तर्भाव देखने का तीसरा नेत्र माना है, जिसे खोलने से सभी विवादों को सुलझाया जा सकता है और संघर्ष की चिनगारियों को शान्त किया जा सकता है।
ए-7, श्याम नगर, सोडाला जयपुर (राजस्थान)
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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