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इसी प्रकार पारिवारिक जीवन में अनेकान्तदृष्टि कुटुम्ब की शान्ति कायम कर सकती है। वृद्धों और युवकों में विचार भेद स्वाभाविक है। स्त्री और पुरुष के सोचने में भी अन्तर हो सकता है। इस स्वाभाविकता को समझ लिया जाय तो मनमुटाव नहीं होगा। पारिवारिक शान्ति बनी रहेगी।
अन्तरराष्ट्रीय क्षेत्र में U.N.O. Charter अनेकान्त का Charter है। काश! हम इसे निःस्वार्थ होकर आग्रह और हठ को छोड़कर राष्ट्र के वास्तविक सम्बन्धों में क्रियान्वित कर Rych I War is caued in the minds of men. Peace is also caused in the minds of men. Man के इस Mind को अगर हम अनेकान्तवादी बना दें तो विश्व शान्ति को कोई खतरा नहीं रहेगा। कश्मीर समस्या को ही लें, भारत पाकिस्तान को पूर्णतः दोष देता है और पाकिस्तान भारत को। इससे समस्या कभी नहीं सुलझेगी। दोनों के तर्कों में सत्यांश है। इन सत्यांशों के आधार पर अनेकान्तदृष्टि से काल-स्थिति को देखकर अतीत, वर्तमान, भविष्य को देखकर समझौता हो सकता है पर यह तभी सम्भव है जबकि हम अपने विचारों को अहिंसक बनाये। विचारों की अहिंसा यानी प्रतिपक्ष का आदर। वैचारिक अहिंसा के बिना आचार की हिंसा समाप्त नहीं हो सकती है। राग-द्वेष कम नहीं हो सकता है, अहंकार कम नहीं हो सकता है, स्वार्थ कम नहीं हो सकता है।
सामाजिक क्षेत्र में यदि अनेकान्त का सिद्धान्त अपनाया जाये तो गरीबी समाप्त हो सकती है। मानवीय अधिकारों की रक्षा हो सकती है। न्याय की स्थापना हो सकती है।
अन्त में मैं यह दुःख के साथ कहना चाहूंगा कि जैन दर्शन के इस सिद्धान्त को जैनी स्वयं भूल चुके हैं। जैन-धर्म में अनेक सम्प्रदाय बने । इनके ऐतिहासिक कारण हो सकते हैं। समयानुसार कुछ मतभेद हुए आचार-विचार में दुर्बलताओं को लेकर | पर धीरे-धीरे वे समयानुसार मिट भी रहे हैं। मैं यह नहीं कहता कि सम्प्रदायों को समाप्त किया जा सकता है। किन्तु समन्वय सम्भव है, मित्रता सम्भव है, मिलकर काम करना सम्भव है। बहरूपता में भी एकरूपता प्रदर्शित करनी है। क्या हम जैन संघ (Jain Federation) की स्थापना कर सकते हैं, जैसे भारत अनेक राज्यों का Federation है। यदि कोई इसका माध्यम बने तो यह अनेकान्त का प्रयोग होगा। कम से कम मानवीय सेवा के या पारमार्थिक सेवा के जितने कार्यक्रम हैं उनमें विभिन्न जैन सम्प्रदाय मिलकर उपस्थित हों, मिलकर योगदान दें। चाहे वह चिकित्सा का क्षेत्र हो, शिक्षा का क्षेत्र हो, विकलांगों और अनाथों की सेवा का क्षेत्र हो, प्राकृतिक विपदाओं में सहायता देने का प्रश्न हो । इनमें भी अधिक जहां सामाजिक मर्यादाओं का प्रश्न हो, जहां नैतिकता और प्रामाणिकता के नियमों का प्रश्न हो वहां सभी सम्प्रदाय एक सूत्र में बंधे---यह मेरा विनम्र अनुरोध है।
आचार्य महाप्रज्ञ अपनी पुस्तक 'जैन दर्शन और अनेकान्त' में अनेकान्त को सब समस्याओं का समाधान बताते हुए लिखते हैं—जैन परम्परा के आज अनेक सम्प्रदाय हैं, उनमें
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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