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अनेकान्तवाद और उसके प्रयोग
-मोहनसिंह भण्डारी
जैन-दर्शन की सबसे महत्त्वपूर्ण देन है-अनेकान्तवाद, जिसको स्याद्वाद के नाम से भी जाना जाता है। अनेकान्तवाद जैन दर्शन की नींव है, रीढ़ की हड्डी है, उसका व्याख्या सूत्र है। एक लेखक ने अहिंसा और अनेकान्तवाद को जैन मीमांसा रूपी रथ के दो चक्र बताये हैं पर मैं कह सकता हूँ किवैचारिक और बौद्धिक अहिंसा का ही दूसरा नाम अनेकान्त है। यह चक्र नहीं, पूर्ण रथ है। यह एक ऐसा सिद्धान्त है जिसके द्वारा अनेक वैयक्तिक, पारिवारिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक और अन्तरराष्ट्रीय समस्याओं और संघर्षों का समाधान हो सकता है। डॉ. रामधारीसिंह दिनकर ने अपनी पुस्तक 'संस्कृति के चार अध्याय' में लिखा है कि 'अनेकांत का अनुसन्धान अहिंसा साधना का चरम उत्कर्ष है और संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनायेगा, विश्व में शान्ति उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।' आचार्य सिद्धसेन ने 'सम्मति तर्क प्रकरण' में अनेकान्तवाद को एक ऐसे समुद्र की भांति निरूपित किया है जिसमें सभी वाद यानी सभी मान्यतायें विलीन हो जाती हैं।
अनेकांत का दर्शन तत्त्वों की भाषा में समझाया गया है। इसमें से अधिकांश जो तत्त्वों की गूढ़ भाषा को नहीं समझते, उनके लिए अनेकान्त एक भूल-भूलैया सा लगता है और स्याद्वाद सन्देह का एक पिटारा। शायद यही कारण है कि हम अनेकांत की उदारता, व्यापकता और उपयोगिता को न पूरा समझ पाये हैं और न विश्व को समझा पाये हैं। यद्यपि दर्शन-शास्त्र की संस्कृत और प्राकृत भाषा में जिन तकनीकी शब्दों का प्रयोग हुआ है उनके गूढ़ अर्थ को सरल हिन्दी से या अंग्रेजी में बताना कठिन है, परन्तु आधुनिक युग में अगर हमें अनेकान्त का सार समझना व समझाना है तो उसके लिए निकटतम अंग्रेजी या हिन्दी शब्दों का प्रयोग करना होगा।
तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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