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अनेकान्तवाद तीन शब्दांशों से बना है- अनेक, अन्त और वाद । अनेक यानी many fold अन्त यानीवस्तु, धर्म यानी nature of reality वाद यानी मान्यता Belief. इस प्रकार हम कह सकते हैं कि अनेकान्तवाद का शाब्दिक अर्थ है-Belief in manifoldness of Reality. जैन मनीषियों का मत है कि प्रत्येक वस्तु अनन्त गुणों, पर्यायों और धर्मों का पिण्ड है। जिस दृष्टिकोण से देख रहे हो, वस्तु उतनी ही नहीं है। पांच अंधों ने हाथी के अलग-अलग अवयवों को देखकर हाथी का वैसा ही वर्णन किया, यह उदाहरण सर्वविदित है।
अनेकान्तवाद का एक अंग्रेजी अनुवाद है— Theory of Non-Absolutism यानी कोई absolute Truth नहीं है। जितने भी दार्शनिक हुए हैं उन्होंने मनुष्य की इस जिज्ञासा का उत्तर निकालने का प्रयत्न किया है। सत्य क्या है? सृष्टि का आधार क्या है? मैं कौन हूँ? क्या नित्य है और क्या अनित्य? क्या शाश्वत है और क्या नश्वर? इन प्रश्नों का उत्तर दार्शनिकों ने अपने-अपने सीमित ज्ञान, अनुभव और तर्क के अनुसार दिया है। कहा जाता है कि महावीर के समय में जैन आगमों के अनुसार 363 मत थे और बौद्ध आगमों के अनुसार 63 मत थे। वाद-विवाद का बोलबाला था। वादलीला थी। मौखिक प्रश्नों और उत्तरों की भरमार थी। पर मुख्य रूप से विचारों की दो धारायें थी—प्रथम, जो मान्यताओं के आधार पर केवल एक तत्त्व को ही सत्य मानती है और विविधताओं को मिथ्या या माया| Doctrine of exclusive Monism इसी का एक रूप है ---वेदान्त का अद्वैत ब्रह्मवाद ।
दूसरी धारा, विशेषताओं पर, असमानताओं पर, भेदों पर बल देकर हर वस्तु को अलग मानती है| Doctrine ofexclusive pluralism इसी का एक रूप है द्वैतवाद | Universe is a conglomoration of several distinct existent. बुद्ध ने दोनों विचार पद्धतियों को ठुकराया और दार्शनिक वाद-विवाद में न पड़कर मध्यम मार्ग अपनाने की सलाह दी। बुद्ध दर्शन में हर वस्तु क्षण-भंगुर है, शून्य है। इस निषेधात्मक मत से विद्वानों की जिज्ञासा शान्त नहीं हई। महावीर ने सकारात्मक रुख अपनाकर नित्यानित्य की व्याख्या की— वही अनेकान्त दृष्टि है। पूर्ण सत्य को कोई साधारण मनुष्य नहीं जान सकता, क्योंकि हमारा बुद्धि-ज्ञान
और इन्द्रिय-ज्ञान सीमित है। किन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि वह सीमित ज्ञान असत्य है। हर ज्ञान आंशिक सत्य है। इन आंशिक सत्यों को साथ-साथ रहना है, चाहे वे विरोधी ही क्यों न लगे । तत्त्व की भाषा में समझाते हए महावीर ने हर वस्तु को त्रयात्मक बताया-हर वस्तु में 'उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य' तीनों एक साथ हैं। Existence, cessation and Persistence are three fundamental characteristics of all that is real. World of plurality is not a world of illusion. There is a unity with multiplicity in perfect harmony.
कुछ दार्शनिक सृष्टि की व्याख्या ईश्वरीय रचना के आधार पर करते हैं। जैन दर्शन उसकी व्याख्या जीव और पुद्गल के स्वाभाविक परिणमन के आधार पर करता है। जो कुछ भी घटित होता है वह जीव और पुद्गल (Soul and matter) की पारस्परिक प्रतिक्रियाओं से
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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