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साथ चलता है। लोक-व्यवहार में भी पग-पग पर उसकी उपादेयता है, इसीलिए आचार्य सिद्धसेन ने लिखा है -
जेण विणा लोगस्स वि ववहारो सव्वहा ण णिव्वडइ। तस्स भुवणेक्कगुरुणो णमो अणेगंतवायस्स ||
इस विषमतावादी युग में वैचारिक सहिष्णुता के विकास से ही प्रशस्त वातावरण की निर्मिति हो सकती है। आज आवश्यकता है भगवान महावीर के अनेकान्त दर्शन को समझने की तथा उसके अनुसार चलने की।
सन्दर्भ
1. युक्त्यनुशासन 61 2. सूत्रकृतांग नियुक्ति-112, 113 3. सुत्त निपात 51/2 4. वही 51/3 5. सूयगडो 1/1-50 6. पुरुषार्थसिद्धयुपाय श्लोक-2 7. प्रो. उदयचन्द जैन-आप्तमीमांसा-तत्वदीपिका, प्रस्तावना पृ. 89 8. समयसार (आत्मख्याति) 10/247 9. अष्टशती, अष्ट सहस्री पृ. 286 10. आचार्य महाप्रज्ञ : जैनदर्शन और अनेकान्त 11. आचार्य कुन्दकुन्द-गाथा-12 12. आचार्य महाप्रज्ञ : जैन दर्शन मनन और मीमांसा पृ. 355 13. अध्यात्म अमृत कलश 265 14. श्रमण संस्कृति सिद्धान्त और साधना में श्री रामधारी सिंह दिनकर लेख पृ. 61 15. प. सुखलाल संघवी - अनेकान्तवाद की मर्यादा लेख पृ. 152 16. पं. महेन्द्र कुमार न्यायाचार्य अकलङ्क ग्रन्थ त्रय-प्रस्तावना पृ. 88-89 17. लाइफ एण्ड लेटर्स फ्रेड्रिक मैक्समूलर खण्ड - 2 पृ. 464 18. इंस्क्रिप्शन्सन ऑफ अशोक : विसेण्ट स्मिथ : अशोक (1909) पृ. 171 19. आचार्य महाप्रज्ञ : भेद में छिपा अभेद पृ. 1 20. आचार्य महाप्रज्ञ : कैसी हो इक्कीसवीं शताब्दी पृ. 16
वरिष्ठ प्राध्यापक, जैनविद्या एवं तुलनात्मक धर्म-दर्शन विभाग जैन विश्वभारती संस्थान, लाडनूं (राज.)
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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