________________
जिससे उसके अपने सम्प्रदाय का गौरव बढ़े, वह वस्तुतः ऐसे आचरण द्वारा स्वयं अपने सम्प्रदाय पर कुठाराघात कर रहा है।
जैन दार्शनिकों ने दार्शनिक एकान्तवादों का समन्वय करने का प्रयत्न किया ताकि सबकी कथञ्चित् सत्यता का भी भान हो सके। इस दृष्टिकोण से उन्होंने भावैकान्त, अभावैकान्त, अद्वैतैकान्त, नित्यैकान्त, अनित्यैकान्त, भेदैकान्त, अभेदैकान्त, हेतुवाद, अहेतुवाद, अपेक्षावाद, अनपेक्षावाद, दैववाद, पुरुषार्थवाद, कालवाद, स्वाभाववाद, आत्मवाद, पुरुषार्थवाद आदि विभिन्न वादों का अनेकान्त दृष्टि से समन्वय किया है।
अनेकान्त की घोषणा है- जितने वचन के पथ उतने नयवाद सत्य को पकड़ने के दृष्टिकोण | प्रत्येक विचार एक नय है और वह है सापेक्ष । हमारी सत्यांश को पकड़ने की प्रवृत्ति नहीं है। सत्यांश को पूर्ण सत्य मानकर चलने की प्रवृत्ति बद्धमूल हो गयी है, इसलिए हम एक विचार को सत्य मानते हैं और दूसरे को असत्य । साम्प्रदायिक झगड़ों का यही मूल आधार है। साम्प्रदायिक सद्भावना का स्वर्ण सूत्र है अनेकान्त । अपने विचार के सत्यांश को स्वीकार करो पर भिन्न विचार या दूसरे के विचार के सत्यांश का खण्डन मत करो । भेद और अभेद दोनों सापेक्ष हैं। उन दोनों को सापेक्ष दृष्टि से देखो।
आचार्य महाप्रज्ञ ने लिखा है- अनेकान्तवाद का दृष्टिकोण यह है- मनोवृत्ति और व्यवस्था दोनों का युगपद् परिवर्तन होना चाहिए। यह युगपतवाद अनेकान्तवाद का प्राण तत्व है। इसमें दो विकल्पों की एक साथ स्वीकृति है। इस युगपतवाद के आधार पर नई समाज रचना का प्रयत्न किया जाए, तो नई दिशा का उद्घाटन हो सकता है। श्रम, स्वावलम्बन, स्वदेशी अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था, कृषि, उद्योग आदि भौतिक संसाधनों में परिवर्तन लाने की कल्पना ये सब नई समाज व्यवस्था में प्राण संचार नहीं कर सकतीं। श्रम और स्वावलम्बन की चेतना को विकसित करके ही उसमें प्राण संचार किया जा सकता है। चेतना को विकसित करने की दिशा में प्रयत्न बहत कम हो रहा है, इसलिए प्रयत्न का जो परिणाम आना चाहिए, वह नहीं आ रहा है। चेतनाशून्य प्रवृत्ति महावीर की भाषा में द्रव्य क्रिया है।"
मोह दूर करने के लिए सबसे पहले दृष्टि विकार को दूर करने की आवश्यकता है। सर्वथा एकान्त का त्याग कर अनेकान्त को स्वीकार करके ही वस्तु का कथन किया जा सकता है। प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है। उसमें अनेक धर्म-गुण स्वभाव और अंश विद्यमान हैं। जो व्यक्ति किसी भी वस्तु को एक ओर से देखता है उसकी दृष्टि एक धर्म या गुण पर ही पड़ती है। अतः वह उसका सम्यक् द्रष्टा नहीं कहा जा सकता।
अनेकान्त से फलित होता है सन्तुलन । वह कोरा तत्ववाद का प्रतिपादक नहीं है, यह जीवन का दर्शन है। अध्यात्म का पूरा व्यवहार, अध्यात्म का प्रत्येक उन्मेष अनेकान्त के
46 ।
तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org