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पं.महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने लिखा है- कायिक अहिंसा के लिए जिस तरह व्यक्तिगत सम्यगाचार आवश्यक है, उसी तरह वाचनिक और खासकर मानस-अहिंसा के लिए अनेकान्त दृष्टि विशेष रूप से उपासनीय है। जब तक दो विभिन्न विचारों का अनेकान्त दृष्टि से वस्तु स्थिति के आधार पर समीकरण न होगा तब तक हृदय में उनका अन्तर्द्वन्द्व चलता ही रहेगा और उन विचारों के प्रयोजकों के प्रति राग-द्वेष का भाव जाग्रत हुए बिना न रहेगा। इस मानस-अहिंसा के बिना केवल बाह्य अहिंसा याचितकमण्डल रूप ही है। यह तो
और भी कठिन है कि किसी वस्तु के विषय में दो मनुष्य दो विरुद्ध धारणायें रखते हों और उनका अपने-अपने ढंग से समर्थन ही नहीं, उसकी सिद्धि के लिए वाद-विवाद भी करते हों, फिर भी वे एक दूसरे के प्रति समताभाव मानस-अहिंसा रख सकें । भगवान् महावीर ने इसी मानसी शुद्धि के लिए, अनिर्वचनीय अखण्ड अनन्तधर्मा वस्तु के एक-एक अंश को ग्रहण करके भी पूर्णता का अभिमान करने के कारण विरुद्ध रूप से भासमान अनेक दृष्टियों का समन्वय करने वाली, विचारों का समझौता कराने वाली. पण्यरूपा अनेकान्तदष्टि को सामने रखा । जिससे एकवादी इतरवादियों की दृष्टि का तत्व समझ कर उसका उचित अंश तक आदर करे, उनके विचारों के प्रति सहिष्णुता का परिचय दे और राग-द्वेष विहीन हो शान्त चित्त से वस्तु के पूर्ण स्वरूप तक पहुंचने की दिशा में प्रयत्न करे। समाज रचना या संघ निर्माण में तो इस तत्व की खास आवश्यकता थी। सर्वधर्म समभाव में अनेकान्त का योग
अनेकान्तवादी दूसरे धर्मों के प्रति घृणा का भाव नहीं रखता है। वह सब धर्मों में भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से आंशिक सत्य देखता है। मैक्समूलर ने कहा है , मेरा मत है कि संसार के महान् धर्मों में से प्रत्येक में एक दैवीय तत्व विद्यमान है। मैं समझता हूं कि उनको शैतान की कारस्तानी बताना, जबकि वे सब ईश्वर के बनाये हुए हैं, ईश्वर की निन्दा करना हैं, और मेरा मत है कि ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां परमात्मा में विश्वास उस दैवीय स्फुरणा के बिना हो गया हो, जो मनुष्य में कार्य कर रही दैवीय आत्मा का प्रभाव है। यदि मैं इससे भिन्न विश्वास करूं, यदि मैं अपनी गम्भीरतम सहजवृत्ति के विरुद्ध अपने आपको यह मानने के लिए विवश करूं कि केवल ईसाइयों की प्रार्थनायें ही ऐसी हैं जिन्हें कि परमात्मा समझ सकता है, तो मैं अपने आपको ईसाई नहीं कह सकता । सब धर्म केवल हकलाने (अस्फुट भाषण) जैसे हैं। हमारा अपना धर्म भी उतना ही ऐसा है जितना कि ब्राह्मणों का धर्म । उन सबका अर्थ समझना होगा और मुझे इसमें सन्देह नहीं है कि उनमें चाहे जो भी त्रुटियां क्यों न हो, उसका अर्थ समझा ही जायेगा।"
सम्राट अशोक ने अपने शिलालेख में निम्नलिखित पंक्तियां लिखवाई, राजा प्रियदर्शी सब सम्प्रदायों और गृहस्थों का आदर करते हैं। वे उपहारों द्वारा तथा विविध प्रकार की कृपाओं द्वारा उनका सम्मान करते हैं, क्योंकि जो व्यक्ति केवल अपने सम्प्रदाय से पूर्ण अनुराग के कारण अन्य सम्प्रदायों की निन्दा करते हुए अपने सम्प्रदाय का आदर करता है,
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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