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सम्पूर्ण सत्य की खोज में वह आजीवन सभी धर्मों को टटोलता रहा। परमहंस रामकृष्ण अनेकान्तवादी थे, क्योंकि हिन्दू होते हए भी उन्होंने इस्लाम और ईसाई मत की साधना की थी और गांधी का तो सारा जीवन ही अनेकान्तवाद का उन्मुक्त अध्याय था।
वास्तव में भारत की सामाजिक संस्कृति का सारा दारोमदार अहिंसा पर है, स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की कोमल भावना पर है। यदि अहिंसा नीचे दबी रही और असहिष्णुता एवं दुराग्रह का विस्फोट हुआ, तो वे सारे ताने - बाने टूट जायेंगे जिन्हें इस देश में आने वाली बीसियों जातियों ने हजारों वर्षों तक मिलकर बुना है। स्वस्थ व्यक्तित्व निर्माण में अनेकान्त का योग
अनेकान्त दृष्टि के होते ही जीवन व्यवहार का नक्शा ही बदल जाता है। उसका कोई भी आचरण या व्यवहार ऐसा नहीं होता, जिससे कि दूसरे की स्वतंत्रता पर आंच पहुंचे। तात्पर्य यह है कि वह ऐसे महासत्व की ओर चलने लगता है जहां मन, वचन और कर्म की एक सूत्रता होकर स्वस्थ व्यक्तित्व का निर्माण होने लगता है। ऐसे स्वस्थ स्वोदयी व्यक्तियों से ही वस्तुतः सर्वोदयी नव समाज का निर्माण हो सकता है और तभी विश्व शान्ति की स्थायी भूमिका बन सकती है।
भगवान महावीर ने वस्तु स्थिति पर भली प्रकार से विचार कर सत्य संशोधन का संकल्प सिद्ध किया। उन्होंने अनेकान्तदृष्टि की चाबी से वैयक्तिक और सामष्टिक जीवन की व्यावहारिक और पारमार्थिक समस्याओं के ताले खोल दिये और समाधान प्राप्त किाय । तब उन्होंने जीवनोपयोगी विचार और आचार का निर्माण करते समय उस अनेकान्तदृष्टि की निम्नलिखित मुख्य शर्तों को प्रकाशित किया और उसके अनुसरण का अपने जीवन द्वारा उन्हीं शर्तों का उपदेश दिया। ये शर्ते इस प्रकार है
1. राग और द्वेषजन्य संस्कारों के वशीभूत न होना अर्थात् तेजस्वी माध्यस्थ
भाव रखना। 2. जब तक माध्यस्थ भाव का पूर्ण विकास न हो, तब तक उस लक्ष्य की ओर
ध्यान रखकर केवल सत्य की जिज्ञासा रखना। 3. किसी भी विरोधी पक्ष से न घबराना और अपने पक्ष की तरह उस पक्ष पर भी
आदरपूर्वक विचार करना तथा अपने पक्ष पर भी विरोधी पक्ष की तरह तीव्र समालोचक दृष्टि रखना। अपने तथा दूसरे के अनुभवों में से जो-जो अंश ठीक पायें, चाहे वे विरोधी प्रतीत क्यों न हों - उन सबका विवेक प्रज्ञा से समन्वय करने की उदारता का अभ्यास करना और अनुभव बढ़ने पर पूर्व के समन्वय में जहां गलती मालूम हो वहां मिथ्याभिमान छोड़कर सुधार करना और इसी क्रम से आगे बढ़ना।15
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तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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