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दोनों में द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक में किया जाता है। मूल में वस्तु में अनन्त धर्म होने पर भी वे सभी धर्म सामान्य और विशेष में समाहित हैं।
अहिंसा विकास में अनेकान्तदृष्टि का योग
अहिंसा का विचार अनेक भूमिकाओं पर विकसित हुआ है। कायिक, वाचिक और मानसिक अहिंसा के बारे में अनेक धर्मों में विभिन्न धारायें मिलती हैं। स्थूल रूप में सूक्ष्मता के बीज भी न मिलते हो, वैसी बात नहीं किन्तु बौद्धिक अहिंसा के क्षेत्र में भगवान् महावीर से जो अनेकान्त - दृष्टि मिली, वही खास कारण है कि जैनधर्म के साथ अहिंसा का अविच्छिन्न सम्बन्ध हो गया ।
भगवान् महावीर ने देखा कि हिंसा की जड़ विचारों की विप्रतिपत्ति है । वैचारिक असमन्वय से मानसिक उत्तेजना बढ़ती है और वह फिर वाचिक एवं कायिक हिंसा के रूप में अभिव्यक्त होती है । शरीर जड़ है, वाणी भी जड़ है। जड़ में हिंसा-अहिंसा के भाव नहीं होते । इनकी उद्भव भूमि मानसिक चेतना है।'
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समन्वय का श्रेष्ठ साधन
यथार्थ में अनेकान्त पूर्णदर्शी है और एकान्त अपूर्णदर्शी । सबसे बुरी बात तो यह है कि 'एकान्त' मिथ्या अभिनिवेश के कारण वस्तु के एक अंश को ही पूर्ण वस्तु मान बैठता है और कहता है कि वस्तु इतनी ही है, ऐसी ही है, इत्यादि । इसी से नाना प्रकार के झगड़े उत्पन्न होते हैं । एक मत का दूसरे मत से विरोध हो जाता है लेकिन अनेकान्त इस विरोध का परिहार करके उनका समन्वय करता है। आचार्य अमृतचन्द्र ने लिखा
नैकान्तसङ्गतदृशा स्वयमेव वस्तु, तत्वव्यवस्थितमिति प्रविलोकयन्तः । स्याद्वाद शुद्धि मधिकामधिगम्य संतो, ज्ञानी भवन्ति जिननीतिमलंघयन्तः ॥
अर्थात् सज्जन पुरुष अनेकान्तयुक्त अपनी दृष्टि से वस्तु की यथार्थ व्यवस्था को स्वयं ही देखते हुए तथा स्याद्वादरूप अनेकान्त की विशुद्धता को अधिकाधिक प्राप्त करके जिन नीति को स्वीकार कर ज्ञानी बनते हैं।
रामधारीसिंह, 'दिनकर' ने लिखा 14 - सहिष्णुता, उदारता, सामाजिक संस्कृति, अनेकान्तवाद, स्याद्वाद और अहिंसा ये एक ही सत्य के अलग-अलग नाम हैं। असल में यह भारत की सबसे बड़ी विलक्षणता का नाम है। जिसके अधीन यह देश एक हुआ है और जिसे अपना कर सारा संसार एक हो सकता है। अनेकान्तवादी वह है जो दूसरे के मतों को भी आदर से देखना और समझना चाहता है। अपने पर भी सन्देह करने की निष्पक्षता रखता है। अनेकान्तवादी वह है जो समझौतों को अपमान की वस्तु नहीं मानता। अशोक और हर्षवर्द्धन अनेकान्तवादी थे जिन्होंने एक धर्म में दीक्षित होते हुए भी सभी धर्मों की सेवा की। अकबर अनेकान्तवादी था, क्योंकि सत्य के सारे अंश उसे किसी एक धर्म में दिखाई नहीं दिये एवं
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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