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अनेक विरोधी धर्म-युगलों के रहने का नाम अनेकान्त है। कोई वस्तु सत् है, नित्य है और एक है, इतना होने से वह अनेकान्तात्मक नहीं मानी जा सकती किन्तु वह सत् और असत् दोनों होने से अनेकान्तात्मक है। वस्तु में विरोधी धर्मों के एक साथ रहने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि उसमें प्रत्येक धर्म भिन्न-भिन्न अपेक्षाओं से रहता है। जैन तार्किकों ने पक्ष और प्रतिपक्ष के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया।
अनेकान्तवाद के आधार पर चार विरोधी युगलों का निर्देश किया जाता है1. शाश्वत और परिवर्तन 2. सत् और असत् 3. सामान्य और विशेष 4. वाच्य और अवाच्य
इन चार विरोधी युगलों का निर्देश केवल एक संकेत है। द्रव्य में इस प्रकार के अनन्त विरोधी युगल होते हैं। उन्हीं के आधार पर अनेकान्त का सिद्धान्त प्रतिष्ठित हुआ।
द्रव्य और पर्याय इन दोनों के आधार पर समस्त विचारों का विकास हआ है। जितने भी दर्शन हैं वे या तो द्रव्यवादी हैं या पर्यायवादी। द्रव्यवादी दर्शन द्रव्य को कूटस्थ नित्य बताते हैं। पर्यायवादी दर्शन वस्तु को अनित्य बताते हैं। जैनदर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकान्त के आधार पर की, इसलिए जैनदर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी। वह द्रव्य और पर्याय दोनों को स्वीकार करता है। पंचास्तिकाय' में लिखा है -
पज्जयविजुदं दव्वं दव्वविजुत्ता य पज्जया णत्थि। दोण्हं अणण्णभूदं भावं समणो परूविंति।
अर्थात् पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय नहीं है। दोनों अनन्यभूत हैं। ऐसा श्रमण प्ररूपित करते हैं। अनेकान्त के रूप
अनेकान्त के दो रूप हैं-नय और प्रमाण | द्रव्य के एक पर्याय को जानने वाली दृष्टि नय है और अनन्त विरोधी युगलात्मक समग्र द्रव्य को जानने वाली दृष्टि प्रमाण है। मूल वस्तु को समझने और समझाने की अनेकान्त पद्धति नयों की निरपेक्षता पर निर्भर है। निरपेक्ष दृष्टि से वस्तु तत्व का कथन नहीं किया जा सकता, क्योंकि नाम रूपात्मक जगत् में दृश्यमान सभी वस्तुयें यौगिक अथवा संयोगी (अशुद्ध) है किन्तु मूल वस्तु इससे भिन्न है, अतएव अशुद्ध और शुद्ध इन दो दशाओं का वर्णन करने के लिए दो नयों को स्वीकार करना पड़ता है। यद्यपि जितने वचन प्रकार हैं उतने ही नय हैं और जितने नयवाद हैं उतने ही मत हैं, किन्तु अनन्त नय होने पर भी उनको सात नयों में विभक्त किया गया है जिनके नाम हैं- नैगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र, शब्द, समभिरूढ़ और एवम्भूत नय | इन सात नयों का समावेश 42 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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