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अनेकान्तवाद - एक विवेचन
-प्रो. तुषार कान्ति सरकार
अनेकान्त एवं अवक्तव्य यह दो शब्द आज जैन दर्शन की चर्चा के संदर्भ में बहुत महत्त्वपूर्ण है। अनेकान्त शब्द का अर्थ चार प्रकारों से हो सकता है1. वह मतवाद जो एकांत नहीं है। 2. वह मतवाद जो किसी भी विकल्प को वर्जित नहीं करता यानी सर्वात्मक है। 3. हर वस्तु का स्वरूप ऐसा है कि वह सब एक दूसरे से जुड़े होने के नाते समझ
में आ सकते हैं। 4. वस्तु का स्वरूप अनन्त धर्मात्मक होने के नाते इनमें परस्पर विरोधी जैसे
अस्ति व नास्ति और लाल व अलाल युगपत् रह सकते है।
कुछ वैज्ञानिकों ने अनेकान्तवाद को इसी तरह से समझने की कोशिश की है। अनेकान्त का पर्याय शब्द संकीर्णवाद, आकुलवाद, संहारवाद व वस्तुशवलवाद जो कि अनेकान्त जयपताका में उल्लेखित है उनके आधार पर कहना चाहता हूं कि अनेकान्त के जितने पर्याय शब्द जयपताका में उल्लेखित रहे, उनके हर शब्द अपने ढंग से अनेकान्त का अभिप्राय प्रकट करते हैं। अतः वे परस्पर परिपूरक हैं। जैसे कि इन सब पर्याय-शब्दों का समावेश किया गया है तो अनेकान्त की बहुमुखी प्रतिभा प्रतिस्फुटित हो जाती है।
अनेकान्त शब्द की भांति अवक्तव्य शब्द के भी कई प्रकार हो सकते हैं। उनमें से मैंने दो अर्थ का उल्लेख किया है। इसलिए कि अवक्तव्य का एक अर्थ स्वाभाविक रूप से अनेकान्त या वस्तुओं का अनंत धर्मात्मकता से जुड़ा हुआ है
लेकिन सप्तभंगी नय के संदर्भ में अवक्तव्य शब्द का जो व्यवहार है, वह ऊपर में तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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