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(ख) व्यावहारिक सत्ता के संदर्भ में अनेकान्त को स्वीकार करने में वेदान्त को भी
कोई आपत्ति नहीं है। (ग) हमारे समस्त क्रियाकलाप व्यावहारिक सत्ता पर टिके हैं। अतः वेदान्त की
दृष्टि से भी व्यवहार में हमें अनेकान्त का ही अनुसरण करना पड़ेगा। (घ) इसका यह अर्थ हुआ कि सिद्धान्ततः भले ही वेदान्त जैन से सहमत न हो,
किन्तु व्यवहार में उसका जैन से कोई मतभेद नहीं। व्यवहार अनेकान्त
और वेदान्त का मिलन बिन्दु है। (ङ) प्रस्तुत निबन्ध में हमने अपने को वेदान्त तक सीमित रखा है। इसी प्रकार
यदि हम बौद्ध दर्शन जैसे अन्य दर्शनों का भी अनुशीलन करें तो यह निष्कर्ष निकलेगा कि दार्शनिक विचार-विमर्श और सिद्धान्त में अनेकान्त के सम्बन्ध में मतभेद हो सकता है, किन्तु व्यवहार में दैनन्दिनी समस्याओं का समाधान
अनेकान्त द्वारा ही सम्भव है। अतः हमें भेद में अभेद ढूंढ़ना होगा—व्यवहार में अभेद है, वैचारिक स्तर पर भेद हो सकता है। यह स्वीकार करने में ही हमारा कल्याण है। इसी मार्ग से संघर्ष का शमन हो सकता है- नान्यः पन्था विद्यतेऽयनाय | इतिहास साक्षी है कि वैचारिक स्तर पर भी एकता स्थापित करने के प्रयत्न सफल नहीं हुए हैं। ऐसे प्रयत्नों ने धर्मान्धता, अधिनायकवाद और आतंकवाद को ही जन्म दिया है।
संदर्भ:
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जैन न्याय का विकास, पृ. 37 शतपथ ब्राह्मण 10.5.2.4 जैन न्याय का विकास, पृ. 38 शतपथ ब्राह्मण 14.4.4.3 शतपथ ब्राह्मण 11.2.3 जैन न्याय का विकास, पृ. 41 ऋग्वेद 10.129.4 ऋग्वेद 10.5.7
9. जैन न्याय का विकास, पृ. 43 10. शतपथ ब्राह्मण 6.5.3.7 11. ब्रह्मसूत्र 2.2.33 12. मीमांसाश्लोकवार्तिक, वनवाद 22-24 13. डॉ. सतकड़े मुखर्जी, दी जैन फिलोसॉफी
ऑफ नॉन-एब्सोल्यूटिज्म, भूमिका-पृ.10
प्रोफेसर एवम् अध्यक्ष जैन विद्या एवं तुलनात्मक धर्म तथा दर्शन जैन विश्वभारती संस्थान लाडनूं - 341 306 (राज.)
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- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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