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प्रभृति अन्य आचार्यों ने किया है। हम इस विषय की चर्चा अन्यत्र कर चुके हैं । यहां तो इतना ही कहना पर्याप्त है कि हम इस सम्बन्ध में डॉ. सतकड़े मुखर्जी की इस राय से सहमत हैं कि यदि हमारा विश्वास अनुभव सापेक्ष तर्क में है तो हम अनेकान्त का समर्थन करेंगे।
7. यहां इस बात की ओर संकेत करना अप्रासंगिक नहीं होगा कि आचार्य शंकर सत् और असत् जैसे धर्मों की विरुद्धता बताने के लिए शीत और उष्ण का उदाहरण देते समय युगपत्सदसत्वादिविरुद्धधर्मसमावेशः संभवति शीतोष्णवत् । सत् और असत् विरोधी हैं जबकि शीत और उष्ण विपरीत हैं। विपरीत सदा ही सापेक्ष होते हैं— शीत शीततर की अपेक्षा उष्ण होता है और उष्ण उष्णतर की अपेक्षा शीत होता है । किन्तु सत् और असत् विपरीत नहीं है, अपितु विरुद्ध हैं । अतः उनमें सापेक्षता प्रदर्शित करना इतना सरल नहीं। जैन आचार्यों ने केवल विपरीत धर्मों का ही नहीं अपितु विरुद्ध धर्मों का भी सहअस्तित्व सम्भव बताया है। आचार्यशंकर का ध्यान इस सूक्ष्म भेद की ओर नहीं गया । किन्तु इस कारण से उनकी मूल मान्यता में कोई अन्तर नहीं आता।
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ऊपर हम बता चुके हैं कि कर्मकांड और व्यवहार पक्ष में वैदिक परम्परा में अनेकान्तवाद उतना ही स्वीकार्य है, जितना जैन परम्परा में । इसी कारण कर्मकांड को आधार बनाकर चलने वाले पूर्वमीमांसा के कुमारिलभट्ट जैसे आचार्य वस्तु की उत्पादव्ययध्रौव्यात्मकता को मुक्तकण्ठ से स्वीकार करते रहे हैं- तस्माद्वस्तु त्रयात्मकम्'2 आचार्य शंकर भी परमार्थ की दृष्टि से द्वैत अथवा कर्म का खंडन करते रहे, किन्तु व्यवहार के स्तर पर वे भी द्वैत और सापेक्षता को स्वीकार करते हैं। इस सम्बन्ध में डॉ. सतकड़े मुखर्जी की टिप्पणी अत्यन्त महत्वपूर्ण है
यद्यपि मेरी व्यक्तिगत दार्शनिक आस्था का झुकाव शांकर वेदान्त की ओर है, जो कि आपाततः देखने पर दृष्टि और निष्कर्ष की अपेक्षा से सर्वथा विपरीत प्रतीत हो सकता है, किन्तु यह नहीं भूलना चाहिए कि तर्क और ज्ञान-मीमांसा की दृष्टि से वेदान्त स्पष्टतः वस्तुवादी है । वेदान्त व्यावहारिक सत्ता को तर्क की दृष्टि से जिस प्रकार तर्क-विरुद्ध और विरोधों का समूह मानता है, जैन भी उससे सहमत है किन्तु उसका मौलिक मतभेद यह है कि वह तर्क के प्रति एक विशेष दृष्टि रखता है। जैन तर्क की दृष्टि से वेदान्त की उपलब्धियों को स्वीकार करता है, किन्तु उसके निष्कर्ष वही नहीं । उसका कहना है कि विरोध सत् का वास्तविक स्वरूप है। 13
9. उपर्युक्त विवेचन के आधार पर हम कतिपय निष्कर्ष निकाल सकते हैं(क) वेदान्त पारमार्थिक सत्ता के संदर्भ में अनेकान्त को स्वीकार नहीं कर
सकता ।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2001
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