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चतुर्थ नियम : वाच्य और अवाच्य का अविनाभाव
आचार्य महाप्रज्ञ-कृत व्याख्या
श्रुति में प्रदत्त व्याख्या 'अनेकान्त का चौथा नियम है-वाच्य और परिमित निर्वचनीय है, अपरिमित अवाच्य का अविनाभाव | वाच्य अवाच्य का अनिर्वचनीय है। प्रजापति परिमित भी है। अविनाभावी है और अवाच्य वाच्य का अविनाभावी | और अपरिमित भी, इसलिए वह निर्वचनीय है। द्रव्य अनन्त-धर्मात्मक है । एक क्षण में युगपत् | भी है और अनिर्वचनीय भी। उभयं वा अनन्त धर्मात्मक है। एक क्षण में युगपत् अनन्त । एतत्प्रजापति-निरुक्तञ्चानिरुक्तञ्च धर्मों का प्रतिपादन नहीं किया जा सकता, आयु | परिमितञ्चापरितश्च। निरुक्त
और भाषा की सीमा होने के कारण, कभी भी नहीं | परिमितमनिरुक्तमपरिमितम् । 10 किया जा सकता । इस समग्रता की अपेक्षा से द्रव्य अवाच्य है। एक क्षण में एक धर्म का प्रतिपादन किया जा सकता है। अनेक क्षणों में अनेक धर्मों का भी प्रतिपादन किया जा सकता है। इस आंशिक अपेक्षा से द्रव्य वाच्य है। 3. ऐसी स्थिति में सहज ही यह प्रश्न उपस्थित होता है कि यदि श्रुति इस प्रकार
अनेकान्तवाद का समर्थन करती है तो आचार्य शंकर जैसे मनीषी अनेकान्तवाद का खण्डन क्यों करते हैं? उत्तर यह है कि उपर्युक्त तालिका में जो श्रुति उद्धृत की गई है वे मन्त्रभाग और ब्राह्मणभाग ही हैं। आचार्य शंकर के अनुसार श्रुति के इन दोनों भागों का सम्बन्ध कर्मकाण्ड से है। ज्ञानकाण्ड के क्षेत्र में यह अद्वैत को मान्यता देता है-भावाद्वैतं सदा कुर्यात् क्रियाद्वैतं न कर्हिचित् । ज्ञान का सम्बन्ध पारमार्थिक सत्ता से है। वेदान्त के अनुसार पारमार्थिक सत्ता देशकालाद्यनवच्छिन्न है। अतः वहां सापेक्षता और उस पर आधृत अनेकान्तवाद लागू नहीं होता। अतः श्रुति के ज्ञान काण्ड में अनेकान्तवाद स्वीकार्य नहीं हो
सकता। 5. वेदान्त में प्रस्थानत्रयी मान्य है। प्रस्थानत्रयी में से ब्रह्मसूत्र के 'नैकस्मिन्न
सम्भवात्'11 सूत्र पर भाष्य करते समय शंकराचार्य कहते हैं कि एक ही समय में एक धर्मी में सत् और असत् जैसे विरुद्ध धर्मों का समावेश सम्भव नहीं है। अतः अनेकान्तवाद
को स्वीकार नहीं किया जा सकता। 6. इस सूत्र पर भाष्य करते समय आचार्य शंकर ने कुछ अन्य आपत्तियां भी की हैं।
___उन आपत्तियों का तथा कुछ अन्य आपत्तियों का समाधान आचार्य हेमचन्द्र 34 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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