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प्रथम नियम : सामान्य और विशेष का अविनाभाव | आचार्य महाप्रज्ञ कृत व्याख्या ।
श्रुति में प्रदत्त व्याख्या 'अनेकान्त का पहला नियम | 'मृत्यु में अमृत तथा अमृत में मृत्यु निहित हैहै- सामान्य और विशेष का | अन्तरं मृत्योरमृतं मृत्यावमृतमाहितम् । मृत्यु नाश का अविनाभाव- इसका फलित है कि वाचक होने के नाते पर्याय को सूचित करती है तथा द्रव्य रहित पर्याय और पर्याय रहित | अमृत ध्रुवता का वाचक होने के नाते द्रव्य को सूचित द्रव्य सत्य नहीं है।
करता है। श्रुति का कहना है कि इन दोनों का अविनाभाव सम्बन्ध है।'
द्वितीय नियम : नित्य और अनित्य का अविनाभाव | आचार्य महाप्रज्ञ कृत व्याख्या
श्रुति में प्रदत्त व्याख्या __ 'अनेकान्त का दूसरा नियम | नाम और रूप सत्य है-नामरूपे सत्यम् । ये है- नित्य और अनित्य का | नामरूप अभ्व हैं अर्थात् उत्पन्न होते हैं और विलीन हो अविनाभाव-जैन तार्किकों ने इसकी जाते हैं-तद्वाभ्यामेव प्रत्यवैद्रपेणचैव नाम्नाच...द्वेहैते समीक्षा की। उन्होंने प्रतिपादित ब्रह्मणो महती अभ्वे अभ्व का शब्दार्थहै जो हो भी और किया-इन्द्रियजगत् असत्य नहीं है। | नभी हो- भूत्वापिनभवति । यह पर्यायहै किन्तु 'नामरूपे सत्य वह है जिसमें अर्थक्रियाकारित्व सत्यम्' की श्रुति के अनुसार यह मिथ्या नहीं है अपितु होता है।
सत्य है। अभ्व का प्रतिपक्षी आभु है, जिसका शब्दार्थ है जो सब में ओतप्रोत रहे-आसमन्तात् भवति । सब पर्यायों में ओतप्रोत रहनेवाला ध्रुव द्रव्य अंश आभुहै।
तृतीय नियम : अस्तित्व और नास्तित्व का अविनाभाव आचार्य महाप्रज्ञ-कृत व्याख्या
श्रुति में प्रदत्त व्याख्या 'अनेकान्त का तीसरा नियम है- मनीषियों ने सत् का सम्बन्ध असत् अस्तित्व और नास्तित्व का अविनाभाव । में खोजा-सतो बन्धुमसति निरविन्दन् हृदि अनेकान्त ने इसकी खोज की और उसने पाया प्रतीष्य कवयो मनीषा' सत् और असत् दोनों कि अस्तित्व और नास्तित्व-दोनों एक साथ होते का परम तत्व में सहअस्तित्व है-असच्च हैं। प्रतिषेध शून्यविधि और विधिशून्य प्रतिषेध सच्च परमे व्योमन् । कभी नहीं होता । विधि भी द्रव्य का धर्म है और प्रतिषेध भी द्रव्य का धर्म है। अस्तित्व विधि है। और नास्तित्व प्रतिषेध है।
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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