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गया कि गृहस्थ आराधक होता है या प्रव्रजित? तो उन्होंने अनेकांत शैली में कहा कि यदि गृहस्थ और त्यागी मिथ्यावादी हैं तो आराधक नहीं हो सकते । यदि दोनों सम्यक् आचरण करने वाले हैं तो वे आराधक हो सकते है। इसी प्रकार जब महावीर से जयंती ने पूछा, भगवन् सोना अच्छा या जागना? तो उन्होंने कहा, कुछ का सोना अच्छा है, कुछ का जागना। पापी का सोना अच्छा है और धर्मात्मा का जागना । इस प्रकार हम देखते है कि प्रारम्भिक बौद्ध धर्म में एकान्तवाद का निरसन और विभज्यवाद के रूप में अनेकांतदृष्टि का समर्थन देखा जाता है।
यदि बुद्ध और महावीर के दृष्टिकोण में कोई अन्तर देखा जाता है तो वह यही कि बुद्ध ने एकान्तवाद के निरसन पर अधिक बल दिया। उन्होंने या तो मौन रहकर या फिर विभज्यवाद की शैली को अपना कर एकान्तवाद से बचने का प्रयास किया। बुद्ध की शैली प्रायः निरसन या निषेधपरक रही, परिणामतः उनके दर्शन का विकास शून्यवाद में हआ, जबकि महावीर की शैली विधानपरक रही, अतः उनके दर्शन का विकास अनेकांत या स्याद्वाद में हुआ। स्याद्वाद और शून्यवाद
बौद्ध दार्शनिक चेतना का विकास शून्यवाद के रूप में देखा जाता है, किन्तु हमें स्मरण रखना होगा कि शून्यवाद और स्याद्वाद का विकास विभज्यवाद से ही हुआ है। भगवान बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों को अस्वीकार कर अपने मार्ग को मध्यम प्रतिपदा कहा और महावीर ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद दोनों की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार कर अपने मार्ग को अनैकान्तिक बताया । बौद्ध परम्परा में विकसित मध्यम प्रतिपदा या शून्यवाद और जैन परम्परा में विकसित अनेकांतवाद या स्याद्वाद दोनों का लक्ष्य एकान्तिक दार्शनिक अवधारणाओं की अस्वीकृति ही था। दोनों में फर्क इतना ही है। जहां शून्यवाद एक निषेध प्रधानशैली को अपनाता है, वहां स्याद्वाद एक विधानपरक शैली को अपनाता है। शून्यवाद के प्रमुख ग्रन्थ माध्यमिक कारिका के प्रारम्भ में ही नागार्जुन लिखते हैं
अनिरोधमनुत्पादमनुच्छेदमशाश्वतम् । अनेकार्थमनानार्थमनागममनिर्गमम्॥ यः प्रतीत्य समुत्पादं प्रपंचोपशमं शिवम्।
देशयामास संबुद्धस्तं वन्दे द्विपदां वरम्॥ __ प्रस्तुत कारिका का तात्पर्य यही है कि वह परमसत्ता न तो विनाश को प्राप्त होती है और न उसका उत्पाद होता है, वह उच्छिन्न भी नहीं होती और वह शाश्वत भी नहीं होती। वह एक भी नहीं है और अनेक भी नहीं है। उसका आगम भी नहीं है और उसका निर्गम भी नहीं है। इसी बात को प्रकारान्तर से इस प्रकार भी कहा गया है3
न सद् नासद् न सदसत् न चानुभयात्मकम् । चतुष्कोटि विनिर्मुक्तं तत्त्वं माध्यमिका विदु ॥
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 20016
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