________________
संजय वेलट्ठीपुत्त और अनेकांत
संजय वेलट्टीपुत्त बुद्ध के समकालीन छह तीर्थंकरों में एक थे। उन्हें अनेकांतवाद सम्पोषक इस अर्थ में माना जा सकता है कि वे एकांतवादों का निरसन करते थे। उनके मन्तव्य का निर्देश बौद्धग्रन्थों में इस रूप में पाया जाता है
(1) है? नहीं कहा जा सकता। (2) नहीं है? नहीं कहा जा सकता। (3) है भी और नहीं भी? नहीं कहा जा सकता। (4) न है और न नहीं है? नहीं कहा जा सकता।
इस सन्दर्भ से यह फलित है कि किसी भी एकान्तवादी दृष्टि के समर्थक नहीं थे। एकान्तवाद का निरसन अनेकांतवाद का प्रथम आधार बिन्दु है और इस अर्थ में उन्हें अनेकांतवाद के प्रथम चरण का सम्पोषक माना जा सकता है। यही कारण रहा होगा कि राहुल सांकृत्यायन जैसे विचारकों ने यह अनुमान दिया कि संजय वेलट्टीपुत्त के दर्शन के आधार पर जैनों ने स्याद्वाद (अनेकांतवाद) का विकास किया। किन्तु उसका यह प्रस्तुतीकरण वस्तुतः उपनिषदों के सत्, असत्, उभय (सत्-असत्) और अनुभय का ही निषेध रूप से प्रस्तुतीकरण है। इसमें एकान्त का निरसन तो है, किन्तु अनेकांत स्थापना नहीं है। संजय वेलट्टीपुत्त की यह चतुर्भगी किसी रूप में बुद्ध के एकांतवाद के निरसन की पूर्वपीठिका है। प्रारम्भिक बौद्ध दर्शन और अनेकांतवाद
भगवान् बुद्ध का मुख्य लक्ष्य अपने युग के ऐकान्तिक दृष्टिकोणों का निरसन करना था, अतः उन्होंने विभाज्यवाद को अपनाया। विभज्यवाद प्रकारान्तर से अनेकांतवाद का ही पूर्व रूप है। बुद्ध और महावीर दोनों ही विभज्यवादी थे। सूत्रकृतांग में भगवान महावीर ने अपने भिक्षुओं को स्पष्ट निर्देश दिया था कि वे विभज्यवाद की भाषा का प्रयोग करे (विभज्जवायं वियणरेज्जा) अर्थात् किसी भी प्रश्न का निरपेक्ष उत्तर नहीं दे। बुद्ध स्वयं अपने को विभज्यवादी कहते थे। विभज्यवाद का तात्पर्य है प्रश्न का विश्लेषण पूर्वक सापेक्ष उत्तर देना। अंगुतर निकाय में किसी प्रश्न का उत्तर देने की चार शैलियां वर्णित हैं(1) एकांशवाद अर्थात् सापेक्षिक उत्तर देना (2) विभज्यवाद अर्थात् प्रश्न का विश्लेषण करके सापेक्षिक उत्तर देना (3) परिप्रश्न पूर्वक उत्तर देना और (4) मौन रह जाना (स्थापनीय) अर्थात् जब उत्तर देने में एकान्त में पड़ना पड़े वहाँ मौन रह जाना । हम देखते हैं कि एकान्त से बचने के लिए बुद्ध ने या तो मौन का सहारा लिया या फिर विभज्याद को अपनाया । उनका मुख्य लक्ष्य यही रहा कि परम तत्व या सत्ता के सम्बन्ध में शाश्वतवाद, उच्छेदवाद जैसी परस्पर विरोधी विचारधाराओं में से किसी को स्वीकार नहीं करना। त्रिपिटक में ऐसे अनेक सन्दर्भ हैं, जहाँ भगवान बुद्ध ने एकान्तवाद का निरसन किया है। जब उनसे पूछा गया, क्या आत्मा और शरीर अभिन्न है? वे कहते हैं, मैं ऐसा नहीं कहता। फिर जब यह पूछा गया, क्या आत्मा और शरीर भिन्न है? उन्होंने कहा, मैं ऐसा भी नहीं कहता हूं। जब उसने यह पूछा 28 -
- तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org