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आत्मा परिवर्तित नहीं है तो यह नहीं कहा जा सकता कि पहले दुःखी थी, बाद में सुखी बन गई। पहले सुखी और बाद में दुःखी -यह स्थिति परिवर्तनशील पदार्थ में ही घटित हो सकती है। इसलिए जैनदर्शन ने आत्मा को न सर्वथा शाश्वत माना और न सर्वथा अशाश्वत माना। आत्मा शाश्वत भी है और अशाश्वत भी है। आत्मा शाश्वत है, इसलिए उसका अस्तित्व नाना पर्यायों में परिवर्तित होता रहता है। वह कभी सुखी बनता है और कभी दुःखी बनता है। वह कभी मनुष्य बनता है और कभी पशु बनता है ।
यदि आत्मा शाश्वत है तो पुण्य और पाप की व्यवस्था घटित नहीं हो सकती। वह अलिप्त है, शाश्वत है तो मानना होगा कि सारे संसार की हत्या करके भी आत्मा उसमें लिप्त नहीं हो सकता। क्योंकि वह शाश्वत है, जैसा है, वैसा ही रहता है। उसमें एक राई भर का भी फर्क नहीं पड़ता। इस स्थिति में न पुण्य की बात हो सकती है और न पाप की । व्यक्ति कुछ भी करे, न पुण्य होगा और न पाप होगा। यदि आत्मा शाश्वत है तो बंध और मोक्ष की व्यवस्था भी घटित नहीं हो सकती। प्रश्न होगा- आत्मा शाश्वत है तो बंध किसका और मोक्ष किसका ? ये सारे परिवर्तन पदार्थ में ही घटित हो सकते हैं।
जैन दर्शन की भाषा
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जैन दर्शन के अनुसार जैसी एक आत्मा है, वैसा ही परमाणु है। बहुत बार कहा जाता है- आत्मा अमर है । शरीर मरता है, यह जैन दर्शन की भाषा नहीं है। आत्मा अमर है, यह भी सर्वथा सही नहीं है। एक परमाणु अमर है तो आत्मा भी अमर है। आत्मा अमर है तो एक परमाणु भी अमर है । कोई फर्क नहीं है। अगर परमाणु मरता है, शरीर मरता है, तो आत्मा भी मरता है। प्रश्न होता है—शरीर क्या है? शरीर मूल द्रव्य नहीं है । शरीर एक पर्याय है। मूल द्रव्य है - परमाणु । शरीर नहीं रहा, हम कहते हैं— अमुक व्यक्ति मर गया । वस्तुतः नष्ट कुछ भी नहीं हुआ। केवल रूपान्तरण हुआ है। जो परमाणु शरीर के रूप में थे, वे शरीर के रूप में समाप्त हो गए और दूसरे रूप में बदल गए। एक सार्वभौम सिद्धान्त है— जितने द्रव्य इस संसार में हैं, उतने ही थे और उतने ही रहेंगे। एक भी परमाणु न अधिक होगा और न न्यून होगा । कुछ भी परिवर्तन नहीं होगा। परिवर्तन का सिद्धान्त अपरिवर्तन का सिद्धान्त से जुड़ा हुआ है। समस्या यह है— जो केवल द्रव्यार्थिक सत्य को मानकर चलते हैं, वे मूल स्रोत की व्याख्या नहीं कर सकते । मूल अस्तित्व की व्याख्या नहीं कर सकते ।
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समन्वय की मौलिक दृष्टियां
बौद्ध दर्शन पर्यायवादी दर्शन है। जब उसके सामने आत्मा आदि के प्रश्न आए तो उन्हें अव्याकृत कहकर टाल दिया गया। क्योंकि एकान्तवाद के द्वारा उनकी सम्यक् व्याख्या नहीं हो सकती। जैन-दर्शन ने इन दोनों दृष्टियों — द्रव्यार्थिक दृष्टि और पर्यायार्थिक दृष्टि का समन्वय किया। जैन दर्शन ने कहा- मूल तत्व भी है और पर्याय भी है। इसलिए द्रव्य की व्याख्या भी की और पर्याय की व्याख्या भी की। उसने शाश्वत और अशाश्वत- दोनों का
तुलसी प्रज्ञा जुलाई - दिसम्बर, 2001
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