________________
समन्वय साधा । आज के विचारक और विद्वान् कहते हैं- जैन-दर्शन मौलिक दर्शन नहीं है। यह दूसरे दर्शनों का समुच्चय है। दूसरे दर्शनों के विचारों का एक पुलिन्दा है । यह धारणा क्यों बनी? इसका आधार बना जैन आचार्यों की समन्वय दृष्टि । जैन आचार्यों ने समन्वय किया नयों के आधार पर, यह उनका समन्वयपरक दृष्टिकोण था। समन्वय का दृष्टिकोण जिन दृष्टियों से किया, वे उनकी अपनी मौलिक थी। किन्तु जब समन्वय साधा तो दूसरों को लगा- यह नित्यवाद सांख्यदर्शन का है। सांख्य आत्मा को कूटस्थ नित्य मानता है। यह नित्यवाद वेदान्त का सिद्धान्त है। अनित्यवाद बौद्धों का सिद्धान्त है। जैनों ने नित्यवाद सांख्य और वेदान्त से ले लिया तथा अनित्यवाद, पर्यायवाद बौद्धों से ले लिया । यह लेने का प्रश्न नहीं था। यह प्रश्न था समन्वय का। समन्वय : परसमय
जैनाचार्यों ने समन्वय किया। आचार्य सिद्धसेन और समन्तभद्र से लेकर आचार्य हरिभद्र और उपाध्याय यशोविजय तक और आज आचार्य तुलसी तक भी यह परम्परा चल रही है। जैन लोग सब दृष्टियों का समन्वय साधते हैं। वे एकान्तदृष्टि से किसी तत्व की व्याख्या नहीं कर सकते । वे प्रत्येक तत्व में समन्वय खोजते हैं। उनका चिन्तन होता है यह बात किस अपेक्षा से कही जा रही है। जो कहा जा रहा है, वह गलत नहीं है, पर यह परसमय क्यों कहा जा रहा है? यह एकान्तदृष्टि से ऐसा माना जा रहा है। यदि परसमय को सापेक्ष कर दिया जाए तो यह स्वसमय बन जाएगा।
स्वसमय और परसमय में बहत अन्तर नहीं है। रत्न अलग-अलग पड़े हैं, उनकी एक माला बना दी जाए, रत्नावली बन जाएगी, हार बन जाएगा । जब तक रत्न अलग-अलग पड़े हैं, रत्नावली नहीं बन पाएगी। उन्हें पिरो दिया गया तो रत्नावली या हार बन गया। अनेक विचार अलग-अलग बिखरे पड़े हैं और अपने ही विचार पर अड़े हए हैं तो वे परसमय है। उन सबको मिला दिया जाए तो स्वसमय बन जाएगा। नित्यवाद सही नहीं है। अनित्यवाद भी सही नहीं है। नित्य और अनित्य दोनों को मिला दिया जाए तो दोनों सम्यक् बन जाएंगे, स्वसमय बन जाएंगे। परिवर्तन : अपरिवर्तन
आचार्य सिद्धसेन ने लिखा-द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है। यदि द्रव्यार्थिक नय बिल्कुल सही है तो सांख्य का कूटस्थ नित्य भी बिल्कुल सही है। पर्यायार्थिक नय बिल्कुल सही है तो बौद्धों का क्षणभंगुरवाद भी बिल्कुल सही है। यदि एकान्त नित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है- केवल कूटस्थ नित्य ही सही है, परिवर्तन सही नहीं है तो सम्यक् नहीं है। यदि एकान्त अनित्यवाद निरपेक्ष है और वह कहता है—केवल परिवर्तन ही सम्यक् है, अपरिवर्तन सही नहीं है तो वह भी सम्यक् नहीं है। परिवर्तन और अपरिवर्तन—दोनों का समन्वय करो, दोनों को एक साथ जोड़ दो तो दोनों सही हो जाएंगे। सम्यकदर्शन या स्वसमय बन जाएंगे।
12
तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org