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पर्याय को अस्वीकार नहीं करती और पर्याय को जानने वाली दृष्टि पर्याय का प्रतिपादन करती है, द्रव्य को अस्वीकार नहीं करती। दोनों दृष्टियां परस्पर सापेक्ष हो जाती हैं। इसका नाम है— सम्यक् दर्शन । निरपेक्षदृष्टि मिथ्या दर्शन और सापेक्षदृष्टि सम्यक्दर्शन ।
अनेकान्त और सम्यक्दर्शन- दोनों समान अर्थ वाले बन जाते हैं। द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों दृष्टियां अलग-अलग होती हैं तो एकान्तवाद होता है । द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों दृष्टियों का अलग होना मिथ्या दर्शन है और दोनों दृष्टियों का संयुक्त होना सम्यक्दर्शन है। इसका अर्थ है अनेकान्त और सम्यक्दर्शन दोनों पर्यायवाची हैं और एकान्त और मिथ्यादर्शन — दोनों पर्यायवाची हैं ।
अनेकान्त निष्कर्ष :
जैन दर्शन ने द्रव्य और पर्याय की व्याख्या अनेकान्त के आधार पर की। इसलिए जैनदर्शन न द्रव्यवादी है और न पर्यायवादी है । वह द्रव्य को भी स्वीकार करता है और पर्याय को भी स्वीकार करता है। इसी आधार पर जैन दर्शन के सन्दर्भ में कहा गया वह न नित्यवादी है और न अनित्यवादी है, किन्तु नित्यानित्यवादी है । वह न सामान्यवादी है और न विशेषवादी है, किन्तु सामान्य- विशेषवादी है । न एकवादी है और न अनेकवादी है, किन्तु अनेकानेकवादी है । वह न अस्तिवादी है और न नास्तिवादी है, किन्तु अस्तिनास्तिवादी है । ये सारे निष्कर्ष अनेकान्तवाद के आधार पर फलित हुए हैं।
शाश्वतवाद की समस्या :
मूल दृष्टियां दो हैं— द्रव्यनय और पर्यायनय | जितना नित्यता का अंश है, जितना शाश्वत है, उसका प्रतिपादन करने वाली दृष्टि या पर्यायार्थिक नय है । दो ही तत्व प्रत्येक दर्शन के सामने हैं— नित्य और अनित्य, शाश्वत और अशाश्वत । जैन दर्शन शाश्वतवादी नहीं है। शाश्वतवादी को कुछ करने की जरूरत नहीं होती । साधना का विधान बनाने की जरूरत नहीं होती । आत्मा शाश्वत है, नित्य है, जैसा है, वैसा रहेगा तो साधना की कोई आवश्यकता नहीं । व्यक्ति साधना किसलिए करे ? यदि आत्मा में परिवर्तन नहीं होता है तो साधना व्यर्थ है । यदि परिवर्तन होता है तो शाश्वतता का सिद्धान्त खण्डित हो जाता है। दोनों ओर से विरोध प्रस्तुत हो जाता है। एकांगी दृष्टिकोण में दोनों ओर से समस्या आती है। तर्क जैन आचार्यों का
जैनाचार्यों ने एक तर्क प्रस्तुत किया
नैकान्तवादे सुखदुःखभोगे न पुण्य-पापे न च बन्धमोक्षौ ।
एकान्तवाद में सुख और दुःख का योग नहीं हो सकता। बंध और मोक्ष नहीं हो सकता। अगर आत्मा बदलती नहीं है तो यह नहीं माना जा सकता कि वह पहले दुःखी था और अब सुखी बन गया। पहले दुःखी था और अभी सुखी बन गया, इसका अर्थ है आत्मा पहले एक अवस्था में थी और अब दूसरी अवस्था में आ गई, परिवर्तन हो गया। अगर
। तुलसी प्रज्ञा अंक 113 114
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