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मंदिर में, मूर्ति के चरणों में शीश धरा "करो पाप-खाओ धाप अनेकांत की इसकी होगी व्याख्या क्या? करो धरम – फूटे करम"
कहते हैं कि भारत में (या कि नहीं विश्व भर में) अनेकांत में, यह भी संभव कि
''जो भी सत्य, इसका उलटा भीपात्र को आधा भरा या आधा खाली कहा जाए वैसा ही सत्य बन जाता है। सूर्य की निन्दाएं जब यों भी होती हों- अनेकांत कैसे तब इससे बचा पाता है? अभागा, कभी छुट्टी नहीं पाता
अनेकांत के नाम पर क्या अमानवीय कृत्यबेचारा, रोज जन्मता – रोज मरता
नहीं जो हो जाना चाहेगा प्रचलित? निर्जीव होते हुए भी इतनी आग उगलता किसी बड़े अपराध का दंड भुगतता...
अपराध भी क्या नहीं हो जाना चाहेगा
यथावत अधिकृत? तब अनेकांत में
कैसे हो अनेकांत का सब इस तरह प्रयोग ऐसी दृष्टि, ऐसी मनोवृत्ति का क्या हो?
हो न सके इसका अवांछित दुरुपयोग? विचार में जो अनेकांत
अतः अनेकांत क्याव्यवहार में क्या वहीं नहीं अहिंसा, अणुव्रत?
नीति निरत नहीं? पर कसौटी पर होगा नहीं अनेकांत?
उदार चरित नहीं? क्या यह संभव कि मान्य हो हर मत?
सुसंस्कृत प्रकृति नहीं? कैसे हो विभेद कि क्या सही, क्या गलत?
सर्वमयी कृति नहीं? कौन करे निर्णय कि क्या उचित-अनुचित?
मानवीय आस्था नहीं?
विश्वक व्यवस्था नहीं? सभी मतों का हो इसमें यदि समाहार यदि अनेकांत नहीं शुद्ध शोधन, संसाधन क्यों कर बन सके इतना उदार व्यवहार? तो फिर कैसे यहहोगा तब कैसे व्यवस्था का संचालन? दर्शन-संज्ञान अमान्य भी मान्य तो कैसे फिर अनुशासन? । प्रज्ञान-विज्ञान दर्शन तो आसुरी भी बन ही जाता है जीवन का प्रावधान ज्यों लोक कथन
बिना इसके कैसे चल पाए जीवन?
तृतीय-3, विश्वविद्यालय मार्ग, जोधपुर-342 011 (राजस्थान)
तुलसी प्रज्ञा जुलाई-दिसम्बर, 2001
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