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लोकार्पण : आवश्यक निर्युक्ति (भाग-1) का
'आवश्यक' जैन साधना पद्धति का प्रायोगिक आध्यात्मिक अनुष्ठान है। इसके द्वारा साधक अपने दोषों का पर्यालोचन कर परिमार्जन करने का प्रयत्न करता है। श्रावक एवं साधु के लिए यह अवश्य करणीय है अतः इसका नाम आवश्यक पड़ा।
आवश्यक सूत्र पर सर्वप्रथम व्याख्या निर्युक्ति है, जो आचार्य भद्रबाहु द्वारा प्राकृत भाषा में पद्यबद्ध रचित है। आवश्यक निर्युक्ति के वैशिष्ट्य को इस बात से जाना जा सकता है कि इस पर परवर्ती आचार्यों ने सर्वाधिक व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं ।
जैन विश्वभारती संस्थान द्वारा प्रकाशित आवश्यक निर्युक्ति का प्रथम भाग समणी कुसुमप्रज्ञाजी द्वारा सम्पादित हुआ है। इस ग्रंथ का सम्पादन अत्यन्त जटिल कार्य था, क्योंकि एक ही गाथा को किसी व्याख्याकार ने निर्युक्ति गाथा के रूप में अंगीकार किया है, तो किसी ने भाष्यगाथा के रूप में। किसी व्याख्याकार ने प्रक्षिप्त या अन्यकर्तृकी माना है तो अन्य व्याख्याकार ने गाथा का संकेत ही नहीं किया । समणी कुसुमप्रज्ञाजी ने गाथाओं के पूर्वापर की समीक्षा करके समालोचनात्मक टिप्पणियां लिखी हैं। टीकाओं के साथ प्रकाशित निर्युक्तियों में सामायिक निर्युक्ति की लगभग 1055 गाथाएं मिलती हैं, लेकिन समणी कुसुमप्रज्ञा ने तर्कसम्मत अनेक गाथाओं को प्रक्षिप्त सिद्ध करके 680 गाथाओं को मूल गाथा के रूप में स्वीकार किया है।
हस्त प्रतियों से पाठ - सम्पादन अत्यन्त दुरूह कार्य है। उन्होंने इस युग में श्रमपूर्ण सम्पादन का कार्य निष्पन्न किया है। इस ग्रंथ पर उन्हें पी. एच डी. की उपाधि मिली है।
अनुवाद देने से इस ग्रंथ का मूल्य और अधिक बढ़ गया है— ग्रंथ के साथ चूड़ा के रूप में पांच परिशिष्ट संलग्न हैं। प्रथम परिशिष्ट में गाथाओं का समीकरण प्रस्तुत है जिससे किसी भी गाथा की टीका खोजने में सुगमता हो सके। दूसरे परिशिष्ट में गाथाओं का पदानुक्रम है। तीसरे परिशिष्ट में सामायिक निर्युक्तिगत लगभग 222 कथाओं का हिन्दी अनुवाद है। | कथा के क्षेत्र में काम करने वालों के लिए यह परिशिष्ट अत्यन्त उपयोगी हो सकेगा। चौथे परिशिष्ट में बृहत्कल्प, निशीथ, ओघनिर्युक्ति, मूलाचार आदि ग्रंथों के तुलनात्मक संदर्भ प्रस्तुत हैं।
आचार्य महाप्रज्ञजी के निर्देशन में चलने वाले आगम यज्ञ में यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण अवदान माना जा सकता है। मुनिश्री दुलहराजजी के उल्लेखनीय सहयोग से अनुवाद कार्य सम्पन्न हुआ है।
समणी कुसुमप्रज्ञा ने अपने समस्त वैदुष्य को आवश्यक निर्युक्ति के संपादन में फलीभूत किया है। उन्होंने गूढ़, नीरस और दुरूह शोधकार्य को अपनी अध्यवसायी चेतना और ज्ञान गम्भीरता से जिस प्रकार सम्पादित किया है, वह अनुसंधान के क्षेत्र में पदचिह्न बनेगा । ग्रंथ का मुद्रण और साज-सज्जा अत्यन्त आकर्षक है। ऐसे ग्रंथ रत्न का प्रकाशन के जैन विश्वभारती संस्थान गौरव की अनुभूति करता है।
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सम्पादक
तुलसी प्रज्ञा अंक 113-114
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