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। उक्त विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि रचनाकार अलंकारों के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं, इसीलिए इन अलंकारों के अतिरिक्त भी अनेक अलंकारों का प्रयोग ग्रंथ में किया है। अर्थापत्ति, काव्यलिंग, समाधि, पर्याय, विशेषोक्ति आदि अलंकारों का प्रयोग इस कृति में देखा जा सकता है। छन्द
काव्य में अलंकार, रस और छन्द इन तीनों की त्रिवेणी हमेशा प्रवाहित होती रहती है। कुछ विद्वानों ने छन्द को अलंकार मात्र माना है, मूल तत्व नहीं। लेकिन काव्यकार राजशेखर ने काव्य मीमांसा में (रोमाणिछन्दान्सि) कह कर सर्वत्र छन्द को स्थान दिया है। आचार्य भरत मुनि ने छन्द विहीन शब्द को सार्थक नहीं कहा। (नाट्यशास्त्र 15/14)
लय छन्द का प्राण है। छन्द से सूक्तियों में सजीवता आती है। वर्ण तथा मात्रा संबंधी विशेष नियमों का अनुसरण होता है। आसड कवि ने विवेक मंजरी प्रकरण में मूल रूप से गाथा छन्द का प्रयोग किया है। उनके छन्द प्रयोग में यद्यपि कहीं पद (चरण) स्खलन दिखाई देता है तो कहीं मात्राओं की त्रुटि देखी जा सकती है। रचनाकार ने स्वयं ग्रंथ में इस बात को स्वीकार किया है कि उनके द्वारा पद, अक्षर और मात्राओं के प्रयोग में छन्द का ध्यान नहीं रखा गया। उसमें कहीं अधिकता तो कहीं हीनता का प्रयोग हुआ है। इससे यह स्पष्ट होता है कि शब्दों एवं मात्राओं के लिए रचनाकार ने पहले ही सचेत कर दिया। उन्होंने लिखा है
पय अक्खर मत्ताए अहिअं हीणं च जं मए भणिअं। तं तित्थयर पायासिअ वाणीएमज्झ खमिअव्वं ।।63 ।।
मात्रिक छन्दों में गाथा, दोहा, विगाहा और उग्गाहा छन्दों का प्रयोग रचनाकार ने किया है। इसका उदाहरण इस प्रकार हैगाथा 6,7,10,11,12,14... विग्गाहा 30... उग्गाहा 88... (4) ग्रन्थ की भाषा
प्राकृत भाषा के सन्दर्भ में अनेक वैयाकरणों ने शब्दानुशासन लिखे हैं। मध्ययुग को प्राकृत साहित्य का स्वर्ण-युग कहा जा सकता है। मध्ययुग से ही इस साहित्य का अनुशासन रचे जाने की आवश्यकता को ध्यान रखते हुए, जहां कई आचार्यों ने संक्षेप में व्याकरण सूत्र लिखे वहीं आचार्य हेमचन्द्र ने संस्कृत के साथ-साथ प्राकृत का भी शब्दानुशासन रचा, जो आज प्राकृत भाषा के नियमों की व्याख्या के लिए पूर्ण माना जाता है। हेमचन्द्र ने सामान्य प्राकृत, जिसे महाराष्ट्री के नाम से जाना जाता है, के साथ-साथ मागधी, शौरसेनी, पैशाची, अपभ्रंश आदि भाषाओं का भी शब्दानुशासन लिखा। विवेकमंजरी प्रकरण में रचनाकार ने सामान्य प्राकृत का प्रयोग किया है। यद्यपि रचनाकार भाषा प्रयोग में स्वतंत्र रहता है, किन्तु किसी एक भाषा को मुख्य रूप से स्थान भी देता है।
तुलसी प्रज्ञा अक्टूबर-दिसम्बर, 2000
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