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रूपक- रूपक का अर्थ है-रूप का आरोप। जब एक वस्तु पर अन्य वस्तु का आरोप कर दोनों में अभेद स्थापित किया जाए वह रूपक अलंकार होता है। उपमेय पर उपमान के निषेध रहित आरोप को रूपक कहते हैं।
__ कवि आसड ने विवेकमंजरी में सर्वाधिक प्रयोग रूपक अलंकार का किया है। उन्होंने जगह-जगह उपमेय में उपमान का आरोपण किया है उदाहरण के लिए - विवेकपईवा (गाथा-2) एअं मणसुद्धी मंजरी वरुक्खस्स (गाथा-4) मयण भडवाय भंजण (गाथा-34) जाउतेलुक्क सिरितिलियं (गाथा-55) गुणरयणमहोअहीसुहावासो (गाथा - 64) घणकम्मपासबद्धो (गाथा - 101) विसयरसासवमत्तो (गाथा 105) विभावना
विभावना का अर्थ है- विशेष प्रकार की कल्पना या भावना । कारण के अभाव में कार्य के होने के चमत्कारपूर्ण वर्णन को विभावना अलंकार कहते हैं। अभयारानी के प्रसंग में शील से गिराए जाने पर भी सुदर्शन का दृढ़ स्थिर रहना चमत्कारपूर्ण वर्णन है। इससे सुदर्शन की कीर्ति और भी वृद्धि को प्राप्त हुई। इसमें विभावना अलंकार समाविष्ट है। ग्रंथ में कहा गया है कि
भवभमणनिभयाए, अभयाए पाडिऊण तह विसमो।
निव्वूढोसि सुदंसण, तुह कित्ती तेण महमहइ ॥44।। परिकर
परिकर अलंकार में साभिप्राय अथवा व्यंजक विशेषण शोभाकारक बनकर विशेष्य का परिपोषक होता है। परिकर का अर्थ उपकरण या शोभाकारक पदार्थ है जब साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग से वर्णनीय पदार्थ का पोषण किया जाए तब परिकर अलंकार होता है। कवि आसड ने विवेकमंजरी में एक नहीं, कई स्थलों का साभिप्राय विशेषणों का प्रयोग किया है जिससे वर्णन और भी उत्कृष्ट बन पड़ा है। उदाहरण के लिए प्रथम मंगलाचरण की गाथा दृष्टव्य है जहां पर भगवान महावीर को वर जिणनाह विशेषण के साथ-साथ सिद्धपुरसत्थवाहं विशेषण से भी अलंकृत किया गया है। सिद्धपुरसत्थवाह वीरं नमिऊण वरं जिणनाहं । (गाथा 1)
___अन्यत्र कहा गया है तस्स विभूसणमेअं, मणसुद्धी मंजरी वररुक्खस्स । इस गाथा में विवेकमंजरी को श्रेष्ठ वृक्ष का आरोपण कर मन को उसका विभूषण बताया गया है जो शुभ फल को प्राप्त कराता है। यहां पर भी परिकर अलंकार का प्रयोग रचनाकार ने किया है। पंचपरमेष्ठी अपने आप में पूज्य हैं, शरणभूत हैं फिर भी उन्हें करुणा पूर्ण बताकर निर्दिष्ट किया है।
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3 तुलसी प्रज्ञा अंक 110
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